________________ नवमः सर्गः 387 और अन्त में कहना पड़ता है-'उभयोरपि यो दोषः परिहारस्तयोः समः / नेकः पर्यनुयोक्तव्यः'। किन्तु विद्याधर यहाँ अपनी अलग हो खिचड़ी पका रहे हैं, उनकी व्याख्या देखिए-~-'कीदृशो नल:-प्रतिबन्दी विरोधी अनुत्तरोऽभाषणं यस्य / यदा हि दमयन्ती उत्तरं न ददाति तदा दूतकर्म न पिध्येत्, अतः प्रतिबन्द्यनुत्तरः' / नल के कहने का आशय यहाँ यह है कि दमयन्ती ! भले ही तुम पर पुरुषों को ऐसा प्रतिबन्धुत्तर दो लेकिन मैं तो तुम्हारे लिए पर-पुरुष नहीं हूँ, स्व-पुरुष ही हूँ। मुझे ऐसा टेढ़ा-मेढ़ा उत्तर न दे कर सीधी भाषा में कहो कि मैं तुम्हारे विषय में इन्द्रादि को क्या संदेश कहूँ ? ऐसा भाव बताने में श्लोक में निषेधात्मक 'मा' शब्द की संगति नहीं बैठ रही है इसलिए नारायण का यह व्याख्यान कि 'ईदृशं प्रतिबन्धादि रूपं वचनं परेषु इन्द्रादिव्यतिरिक्तेषु मादृशेषु मा क्षिप' हमें ठीक लगता है। विद्याधर रूपक कह रहे हैं, जो हम नहीं समझे। हाँ 'माक्षिक को तिरस्कृत करते हुए में' दण्डी के अनुसार उपमा हो सकती है / 'नन्ध' 'बन्ध' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, माक्षि, मा क्षि, माक्षि, माक्षि, में विद्याधर छेक कह रहे हैं जो वर्गों की एक से अधिक बार आवृत्ति होने से नहीं हो सकता है। हाँ, यमकालङ्कार है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 17 / / करोषि नेमं फलिनं मम श्रमं दिशोऽनुगृह्णासि न कंचन प्रभुम् / त्वमित्थमहर्हासि सुरानुपासितुं रसामृतस्नानपवित्रया गिरा // 18 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) इमम् मम श्रमं फलिनम् न करोषि ? दिशः कञ्चन प्रभुम् न अनुगृह्णासि ? इत्यम् रसा 'त्रया गिरा सुरान् त्वम् उपासितु म् अर्हा असि / टीका- हे दमयन्ति ! ) इमम् एतम् मम मे श्रमार देवदौत्यस्य आयासम् फलिनम् सफलं न करोषि न विदधासि ? दिश: दिशायाः कञ्चन कमप्येवम् प्रभुन् स्वामिनम् न अनुगृह्णासि ? नानुकम्पले ? इत्या एवम् प्रतिवन्यात्मकयेत्यर्थः रसः माधुर्यम् एव अमृतम् सुधा (कर्मधा०) तस्मिन् स्नानम् अवगाहनम् ( स० तत्पु० ) तेन पवित्रया पुनीतया ( तृ० तत्पु० ) गिरा वाचा सुरान् इन्द्रा. दीन देवान् त्वम् उपासितुम् सेवितुम् अर्दा योग्या असि अमृत-स्नानेन पवित्रीभूतया गिरा देवान् पूजयितुमर्हसि, स्नानानन्तरमेव पवित्रीभूतस्य जनस्य देव-पूजाधिकारादिति भावः / / 18 / /