________________ नवम: सगः 385 एकत्र सह आसितुम् स्थातुं न शक्नुतः तयोः परस्पर-विरोधात्, तस्मात् यथा तव स्वनामकथनं महाजनाचार-विरुद्धम्, तथैव ममापि त्वया सम्भाषणं स्वाभिप्रायकथनं चापि कुलाङ्गनाचारविरुद्धम् तुल्यन्यायात् // 16 // व्याकरण-अकुर्वते न + /कृ + शतृ + च० / प्रतिवाचिकम् इसके लिए पीछे श्लोक 11 देखिए / संकथा सम् + / कथ् + अ +टाप् / आसनम् / आस् + ल्युट ( भावे)। सहा सहते इति/सह् + अच् ( कर्तरि ) + टाप् / __अनुवाद-"अपने नाम को मेरे कानों का अमृत न बनाते हुए तुम्हारे लिए देने को मेरे पास भी प्रतिसंदेश नहीं है, कारण यह कि पर पुरुष से मेरा भी बातें करना कुलाङ्गनाओं के आचार के अनुकूल नहीं बैठता ( अर्थात् विरुद्ध है )" // 16 // टिप्पणी—जिस तर्क से नल ने लोकाचार की दुहाई देकर दमयन्ती को जिद से परास्त किया है, उसी तर्क को लेकर दमयन्ती भी लोकाचार की दुहाई देकर नल को प्रतिसंदेश न देने की जिद से परास्त कर रही है। इस तर्क अथवा उत्तर को संस्कृत में 'प्रतिबन्दी' या 'तुल्यन्याय' और हिन्दी में 'मियाँ की जूती मियां के सिरे' कहते हैं। प्रतिसंदेश न देने का कारण बताने में काव्यलिङ्ग है। 'सहा' 'सहा' में यमक 'न ते' 'बते' की तुक में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास है // 16 // हदाभिनन्द्य प्रतिवन्धनुत्तरः प्रियागिरः सस्मितमाह स स्म ताम् / वदामि वामाक्षि! परेषु मा क्षिप स्वमीदृशं माक्षिकमाक्षिपद्वचः // 17 // ___ अन्वयः–स प्रिया-गिरः हृदा अभिनन्द्य प्रतिवन्द्यनुत्तरः सन् सस्मितम् ताम् आह स्म-'हे वामाक्षि ! वदामि त्वम् माक्षिकम् आक्षिपत् ईदृशम् स्वम् वचः परेषु मा क्षिप / ' टीका–स नलः प्रियायाः प्रियतमायाः दमयन्त्याः गिरः वचनानि (10 तत्पु० ) हुदा मनसा अभिनन्द्य अनुमोद्य साधूक्तमिति स्तुत्वेति यावत् प्रतिवद्या तुल्यन्यायेन अनुत्तर: ( तृ० तत्पु० ) न उत्तरं प्रतिवचनं यस्य तथाभूतः (ब० वी०) निरुत्तरः दमयन्त्यै प्रत्युत्तरं दातुमसमर्थः इत्यर्थः सन् स्मितेन मन्दह सितन सहितः ( ब० वी० ) यथा स्यात्तथा ताम् प्रियाम् आह स्म अवदत् हे वामाक्षि वामे शोभने अक्षिणी नयने यस्याः तत्सम्बुद्धी (ब० वी० ) वदामि कथयामि