________________ 394 नैषधायचरिते यहाँ दमयन्ती के मुख में देवताओं के वाचक ऐसे शब्द प्रयुक्त किये हैं जो क्लिष्ट हैं और व्यङ्गय से देवताओं की खिल्ली उड़ा रहे हैं / 'जल' शब्द वरुण की जड़ता बता रहा है, 'परेतराज' यम को बड़ा भारी मुर्दा कह रहा है / 'मरुत्वान्' इन्द्र को पागल बता रहा है और 'ऊध्वमुख' से अग्नि की पिशाचता सिद्ध हो जाती है / दमयन्तीके कहने का सार यह है कि ये देवता लोग कितने विचित्र जीव हैं, जिनको इतना भी सामान्य बोध नहीं कि मैं इतनी बड़ी सुन्दरा हूँ। मेरे पास इतने बड़े सुन्दर को दूत बनाकर वे भेज रहे हैं। इन लोगों को नीति शास्त्र का क-ख ग भी नहीं आता। इन्हें निरे मूर्ख अचेतन पगले और पिशाच ही समझिए / ऐसे बुद्ध भी कहीं दैवता हुए। देवताओं पर दमयन्ती का यह बड़ा चुभता विद्रूप है। विद्याधर 'अत्रोत्प्रेक्षालंकारः' कह रहे हैं। वे 'ध्रुवम्' और 'स्फुटम्' शब्दों को उत्प्रेक्षावाचक समझ कर कल्पना कर रहे हैं कि मानो जलाधिप आदि जडाधिप आदि ही हों लेकिन निश्चित' शब्द तो कल्पनावाचक नहीं होता, जिसके साहचर्य से ध्रुवम् और स्फुटम् शब्दों को भी यहाँ निश्चितार्थ ही में लेना उचित रहेगा। दूसरे, जो परम सुन्दरी के पास अपना परम सुन्दर दूत भेज रहा है उसकी जड़ता तथ्य है, कल्पना नहीं, अतः देवताओं के साभिप्राय नाम-शब्दों के प्रयोग में हम कुवलयानन्दानुसार परिकराङ्कर अलंकार कहेंगे जो श्लेषसंकीर्ण है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 23 // अथ प्रकाशं निभृतस्मिता सती सतीकुलस्याभरणं किमप्यसौ / पुनस्तदाभाषण विभ्रमोन्मुखं मुखं विदर्भाधिपसंभवा दधौ // 24 // अन्वयः-अथ सती-कुलस्य किमपि आभरणम् असी विदर्भाधिपसम्भवा निभृतस्मिता सती प्रकाशम् पुनः तदाभाषणविभ्रमोन्मुखम् मुखं आदधे / टीका-अथ स्वगतभाषणानन्तरम् सतीनाम् पतिव्रतानाम् कुलस्य गणस्य ( 10 तत्पु० ) किमपि अनिर्वचनीयम् आभरणम् आभूषणम् असौ विदर्भाणाम् विदर्भदेशस्य अधिपात् स्वामिनः !ष० तत्पु० ) साभवः उत्पत्तिः ( पं० तत्पू० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) दमयन्तीत्यर्थः निभृतम् गुप्तम् स्मितं मन्दहासः कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) सती प्रकाशम् स्फुटं यथा स्यात्तथा पुनः मुहुः तेन नलेन सह आभाषणम वार्तालापः ( तृ० तत्पु०)