________________ नवमः सर्गः 373 अनुवाद--“कानों को अमृत-रूप तुम्हारे वचन सुन ही लिये हैं, किन्तु आपके नाम सुनने की चाह पूरी नहीं हुई है। जल-पान की इच्छा दूध, शहद, ( अथवा ) उनसे भी अधिक ( अमृत ) से भी शान्त नहीं होती" // 5 // टिप्पणी-भवन्नाम्नि--यहाँ जिनराज का कहना है कि--'भवतो नाम्नि भवन्नाम्नीति केषाञ्चिद् व्याख्या न 'तव' इति प्रकृतत्वात् क्रियाध्याहारप्रसङ्गादपि नातिरमणीयम्' अर्थात् पूर्व पाद में 'तव' ( तुम्हारे ) शब्द से प्रारम्भ करके उसे ही फिर 'भवत्' ( आप ) शब्द से कहना अनुचित लगता है, साथ ही क्रिया का भी अध्याहार करना पड़ रहा है अतः श्लथाऽभवन्नाम्नि यो पदच्छेद करना चाहिए, 'तव' पूर्व से अनुवृत्त है ही। लेकिन हम पीछे कितने ही स्थलों में देख आये हैं कि कवि 'भवत्' के साथ 'युष्मत्' और 'युष्मत्' के साथ 'भवत्' प्रयोग करता ही आ रहा है। यहीं ऐसा हुआ हो, सो बात नहीं। विद्याधर यहाँ 'अत्र रूपकार्थान्तरन्यासोऽलंकारः कह रहे हैं / 'गिरः' पर सुधात्वारोप होने से रूपक तो ठीक है किन्तु, जैसे मल्लिनाथ ने भी माना है, अर्थान्तरन्यास न होकर यहाँ दृष्टान्त अलंकार है, क्योंकि पूर्वार्ध और उत्तरार्ध गन दोनों बातें विशेष हैं, जब कि अर्थान्तरन्यास सामान्यविशेषभाव की अपेक्षा रखता है। 'श्रुता' 'श्रुति' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 5 / / बिति वंश: कतमस्तमोपहं भवादृशं नायकरत्नम दृशम् / तमन्य मामान्यधियावमानितं त्वया महान्तं बह मन्तूमुत्सहे // 6 // अन्वयः-तमोपहम् भवादृशम् ईदृशम् नायकरत्नम् कतम: वंशः बिभर्ति ? अन्य सामान्य-धिया अवमानितं त्वया महान्तम् तम् (अहम्) बहुमन्तुम् उत्सहे / टीका-तमः शोकक्रोधादितमोगुण-विकारम् अपहन्ति निवारयतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) भवन्तम् इव भवत्तुल्यमित्यर्थः इति भवादृशम् ईदृशम् एतादृशम नायकेषु राजसु रत्नं रत्नतुल्यं स्वजाति-श्रेष्ठमित्यर्थः ('रत्नं स्वजातिश्रेष्ठे पि'इत्यमरः) ( स० तत्पु० ) कतम: बहुषु कः एकः वंश: कुलम् बिति धत्ते? कस्मिन् सूर्यादिराजवंशे त्वमुत्पन्न इति भावः / अन्यैः कुलैः सामान्यस्य सादृश्यस्य ( तृ० तत्पु० ) धिया बुद्धया (10 तत्पु० ) अन्यवंशवत् साधारणवंशं मत्वेत्यर्थ: अवमानितम् तिरस्कारमवापितम् लोके न गौरवमवाप्तमिति यावत् अद्य महान्तम् महत्त्वं प्राप्तम् तम् वंशम् अहम् बहु अत्यन्तं यथा स्यात्तथा मन्तुम् संमानयितुम्