________________ नवमः सर्गः 375 प्रयुक्त कर रखी है, जिससे तम, वंश, नायकरत्न शब्द दूसरे अर्थ की ओर भी संकेत कर रहे हैं। दूसरा अर्थ प्रकृत से सम्बन्ध नहीं रखता है, अतः प्रकृत-नल-से सम्बन्ध जोड़ने हेतु हम यहाँ दोनों में उपमानोपमेयभाव की कल्पना करेंगे। इसलिए हमारे विचार से यह उपना-ध्वनि ही होगी। विद्याधर पता नहीं क्यों 'अत्र श्लेषालंकारः' कह गए है। 'तम' 'तमो', 'दृशं' 'दृशम्' तथा 'मन्य' 'मान्य' 'मान्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। ध्यान रहे कि मोती उत्पन्न करने वालों में बाँस को भी गिना गया है-'करीन्द्र-जीमत-वराह-शंख-मत्स्याधिशुक्त्युद्भव-वेणुजानि / मुक्ताफलानि ग्रथितानि लोके तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि' ( मल्लिनाथ ) // 6 // इतार विन्वा विस्तां स तां पुगिरानजग्राहत नराधिपः / विरुत्य विश्रान्त वतीं तपात्यये घनाघनश्चातकमण्डलीमिव / / 7 // अन्वयः-इति ईरयित्वा विरताम् ताम् स: नराधिपः तपात्यये विरुत्य विश्रान्तवतीम् चातक-मण्डलीम् घनाघन इव गिरा अनुजग्राहतराम् / टीका-इति उक्त प्रकारेण ईरयित्वा उक्त्वा विरताम् विश्रान्ताम् तूष्णीभूतामिति यावत् साम् दमयन्तीम् स नराणाम् अधिपः पालकः नरेन्द्रो नलः (10 तत्पु० ) तपाय ग्रीष्मर्तोः अत्यये अपगमे वर्षतौ इत्यर्थः विरुत्य विरावं कृत्वा विश्रान्त वतीम् विरताम् चातकानां चक्रवाकाणाम् मण्डलीम् आवलिम् घनाघनः वर्षकमेघः ( 'वर्षुकाब्दा घनाघनाः' इत्यमरः) इव गिरा वाण्या अथ च गर्जनया अनुजग्राहतराम् अतिशयेन अनुगृहीतवान् // 7 // व्याकरण-ईरयित्वा Vईर + णिच + क्त्वा / विरताम् वि + /रम् + क्त ( कर्तरि ) + टाप् / अत्यये अति + ई + अच् ( भावे ) / विरुत्य वि+/+ ल्यप् तु गागम / घनाघनः हन्ति ( गगने गच्छति ) इति /हन + अच् ( कर्तरि ) हन को घत्व, द्वित्व, पूर्व को आत्व / अनुजग्राहतराम् - अनु + ग्रह + तरप् + आम् / __ अनुवाद-यों कहकर चुपहुई उस ( दमयन्ती ) को उस नरेन्द्र ( नल) ने वाणी द्वारा इस तरह अत्यन्त अनुगृहीत किया जैसे क्रन्दन करके चुप हुई चातक-मण्डली को पानी बरसाने वाला बादल गर्जना द्वारा अनुगृहीत किया करता है // 7 //