________________ नवमः सर्गः अनुवाद-"तथापि हठ पकड़ती जा रही ओ दमयन्ती! अथवा इस ( कुल ) के विषय में तुम्हारी इच्छा नपे-तुले शब्दों में मैं पूरी न कर दूं क्या? यह सुनकर कि मैं चन्द्र के वंश ( कुल ) रूपी वंश ( बांस ) का अङ्कर हूँ, तुम अपने हठ में सफल नहीं हो गई हो क्या ?" // 12 // टिप्पणी-दोनों ओर से हठ बनाये रखने पर गतिरोध (Deadlock) होकर कार्य आगे नहीं सरकता, इसलिए स्त्री-प्रकृति हठीली होने के कारण नल को ही अपना हठ छोड़ना पड़ा और अन्ततोगत्वा दमयन्ती को उसने अपना कुल बता ही दिया। नल पर करीरत्वारोप और वंश पर वंशत्वारोप-दोनों में कार्यकारणभाव होने से परम्परित रूपक है। 'ग्रहेग्रहि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 12 // महाजनाचारपरम्परेदशी स्वनाम नामाददते न साधवः / अतोऽभिधातुं न तदुत्सहे पुनजन: किलाचारमुचं विगायति // 13 // अन्वयः-महाजनाचार-परम्परा ईदृशी ( यत् ) साधवः स्वनाम न आददते नाम, अतः तत् अभिधातुम् न उत्सहे, किल जनः आचारमुचम् पुनः विगायति / टीका-महान्तश्च ते जनाः ( कर्मधा०) सत्पुरुषाः तेषाम् आचारस्य आचरणस्य रीतेरित्यर्थः परम्परा क्रमः ( उभयत्र ष० तत्पु०) ईदृशी एतादृशी अस्तीतिशेषः यत् साधवः सन्तः स्वस्य आत्मन: नाम न आवदते गृह्णन्ति नामेति प्रसिद्धी अत: एतस्मात् तत् नाम अभिधातुम् कथयितुम् अहम् न उत्सहे न शक्नोमि, किल हेतो यतः इत्यर्थः जनः लोकः आचारम् मुञ्चतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) पुरुषम् पुनः मुहुः विगायति विनिन्दति // 13 // व्याकरण-आचारः आ +/चर् + घञ् ( भावे ) / परम्परा परं पिपीति परम् + VY+ अच + टाप् / अलुक् समास / साधुः साध्नोति परकार्यमिति Vसाध् + उ ( कतरि)। मुचम् / मुच् + क्विप् / साधु शब्द के स्थान में यदि कवि 'ते' सर्वनाम रखता, तो ठीक रहता, क्योंकि साधु शब्द का पर्यायवाची महाजन शब्द पूर्व प्रक्रान्त है ही। ___ अनुवाद-"सज्जन लोगों के आचार की ऐसी परम्परा है कि साधु पुरुष अपना नाम नहीं लिया करते हैं, यह प्रसिद्ध है। अतः मैं ( अपना) नाम नहीं कह सकता हूं, क्योंकि लोग आचार छोड़ देने वाले की फिर निन्दा किया करते हैं" // 13 //