________________ नवमः सर्गः उप + / सद् + क्वसु (लिडर्थे ) ('भाषायां सदवसश्रुवः 3 / 2 / 108 ) / विडम्बना /विडम्व् + युच् यु को अन + टाप् / अनुवाद-"मेरा कुल यदि उज्ज्वल न हो, तो उसका प्रकट करना कहाँ का औचित्य है ? यदि वह उज्ज्वल है, तो दूत-रूप में आये हुए मेरे लिएखेद की बात है-उसे बताना विडम्बना ( ही ) होगी" // 10 // टिप्पणी-दमयन्ती ! मेरा अपना कुल तुम्हें बताना दोनों तरह ठीक नहीं है। यदि कुल, कलंकी है, तो कलंकी कुल को भला कौन बताएगा ? यदि निष्कलङ्क है, तो निष्कलंक कुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति दूसरों का दूत बने–यह उसके लिए कितने उपहास, लज्जा और खेद की बात होगी? इसलिए बस कुल पूछो ही मत / यहाँ विद्याधर हेत्वलंकार कह गये है। ठीक ही है, क्योकि अनौचित्य और विडम्बना के कारणों को कार्यों के साथ अभेद-रूप में बताया गया है / 'तथा' 'कला' में पदान्तगत अन्त्यनुप्रास, अन्यत्र वृत्यानुप्रास है // 10 / / इति प्रतीत्येव मयावधीरिते तवापि निर्बन्धरसो न शोभते / हरित्पतानां प्रतिवाचिकं प्रति श्रमो गिरा ते घटते हि संप्रति // 11 / / अन्वयः-इति प्रतीत्य एव मया अवधीरिते ( कुलनामप्रश्ने ) तव निवन्धरसः अपि न शोभते / हि संप्रति हरित-पतीनाम् प्रतिवाचिकं प्रति ते गिराम् श्रमः घटते। टीका-इति उक्तप्रकारेण प्रतीत्य ज्ञात्वा विचार्येत्यर्थः एव मया अवधीरिते अवहेलिते उपेक्षिते इति यावत् कुलनामप्रश्ने तव ते निर्बन्धे आग्रहे रस: अभिरुचिः / स तत्पु० ) न शोभते न शोभन: प्रतीयते नोचित इत्यर्थः / हि यस्मात् संप्रति इदानीम् हरिताम् दिशानाम् ( 'दिशस्तु ककुभः काष्ठा आशाश्च हरितश्च ताः' इत्यमरः ) पतीनाम् स्वामिनाम् इन्द्रादीनाम् प्रतिवाचिकं प्रत्युत्तरं (10 तपु० ) प्रति उद्दिश्य ते गिराम् वाचाम् श्रमः प्रयासः घटते युज्यते / मत्कुलनामप्रश्नोत्तरे हठं त्यक्त्वा देवानां सन्देशं प्रति प्रतिसन्देशं ब्रहीत्यर्थः / / 11 / / व्याकरण-प्रतीत्य प्रति + इ + ल्यप, तुगागम / अवधीरिते /अवधीर+क्त ( कर्मणि ) / निबन्ध निर् + Vबन्ध + घञ् ( भावे ) / प्रतिवाचिकम् प्रतिगतं वाचिकमिति ( प्रादि स० ) / वाचिकम् इसके लिए पीछे सर्ग 8, श्लो० 107 देखिए।