________________ शष्टमः सर्गः 343 स्मृतम्' इति यादवः ) चासो सुधा अमृतम् ( कर्मधा० ) तस्य उपयोगः (10 तत्पु० ) यैः तथाभूतैः (ब० वी० ) ते: इन्द्रादिभिः क्षुधम् बुभुक्षाम् च तुषम् पिपासां च निर्वापयता शमयता स्वादीयसा अतिशयेन स्वादुना मधुरतरेणेत्यर्थः स्वाम् चुम्बति सम्बध्नातीति तथोक्तेन ( उपपद तत्पु० ) त्वद्विषयकेणेत्यर्थः स्वस्य आत्मनः मनोरथेन अभिलाषेण एव अध्वा मार्गः सुखम् अनायासं यथा स्यात् तथा गमितः अतिवाहित: लंघितः इति यावत् / मधुरम् अमृत-रूपं पाथेयं त्यक्त्वा तद्विषयकमधुरतराभिलाषे बुभुक्षां पिपासां च विस्मृत्य देवैः स्वर्गाद् भूपर्यन्तो मार्गः अनायासेनैव अतिक्रान्तः इति भावः // 87 / / व्याकरण-अपास्त अप + अस् + क्तः ( कर्मणि ) / पाथेयम् पथि साधु इति पथिन् + ढन् / क्षुधम् क्षुध + क्विप् ( भावे ) द्वि० / तृषम् तृष + क्विप् (भावे) द्वि० निर्वापयता निर + Vवप् + णिच् + शतृ तृ० / स्वादीयसा स्वादु + ईयसुन् ( अतिशये ) / गमितः /गम् + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / ने भूख और प्यास मिटा देने वाली तुम्हें प्राप्त करने की मधुरतर ललक में ही रास्ता आराम से काटा"। टिप्पणो-देवताओं का मन तुम पर गड़ा हुआ है, इसलिए तुम्हें प्राप्त करने की मधुर अभिलाषा में उनकी भूख-प्यास तक मिट गई। मार्ग का शम्बल अमृत भी उन्होंने नहीं छुआ अर्थात् तुम्हें पाने की उनकी ललक अमतसे भी मीठी है। वे क्या अमृत खाते ? भूल ही गये। विद्याधर के शब्दों में "अत्रातिशयोक्तिरलङ्कारः"। हमारे विचार से अमृत की अपेक्षा मनोरथ को अधिक मधुर ( स्वादीयसा) बताने में व्यतिरेक है। शब्दालङ्कार वृत्त्यनुप्रास है। चाण्डू पण्डित, विद्याधर और ईशानदेव इस श्लोक के बाद इसी अर्थवाला निम्नलिखित एक और स्वतन्त्र श्लोक भी दे रहे हैं : त्वच्चुम्बिनैव स्वमनोरथेन स्वादीयसास्तंगमितक्षुधेन / अपास्तपाथेयसुधोपयोगैरध्वा भुवस्तैरयमित्यवाहि // जिनराज ने भी भूल में दोनों ही श्लोक दे रखे हैं यद्यपि व्याख्या उन्होंने एक की ही की है। नारायण की तरह हम भी इसे स्वतन्त्र श्ल क नहीं मान सकते। यह शत प्रतिशत पुनरुक्ति ही है /