________________ नवमः सगः 119 टिप्पणी-नल के माध्यम से देवताओं के प्रणय-निवेदन पर दमयन्ती ने नाक-भौहें सिकोड़ कर यद्यपि निज विमति व्यक्त कर ही दी थी तथापि वह नल की बातें सुनती जाती थी, क्योंकि उनमें उसे बड़ा रस आ रहा था। प्रियतम की मधुर वाणी भला किस नायिका के हृदय को विभोर न करे / लेकिन दमयन्ती को देवताओं के संदेश के लिए जरा भी गौरव-भाव नहीं था। विद्याधर के शब्दों में अत्रातिशयोक्ति-भावोदय-काव्य लिङ्गालंकारः' / काव्यलिङ्ग स्पष्ट है ही क्योंकि सुनने का कारण बताया हुआ है। भावोदय भी ठीक है, क्योंकि यहाँ अभिलाष नाम का भाव उदय हो रहा है। अतिशयोक्ति समझ में नहीं आ रही है / 'गिरं' 'गौर' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।" इस स्वार्थ में कवि वंशस्थ अथवा वंशस्थविल छन्द प्रयोग में ला रहा है, जिसका लक्षण यह है--‘वदन्ति वंशस्थविलं जती जरौ' अर्थात् इसके प्रत्येक पाद में ज, त, ज. र रहते हैं // 1 // तपितामश्रुतवद्विधाय ता दिगीशसंदेशमयीं सरस्वतीम् / इदं तमुवीतलशोतलद्युति जगाद वैदर्भनरेन्द्रनन्दिना // 2 // अन्वयः-वैदर्भनरेन्द्रनन्दिनी तदर्पिताम् ताम् दिगीशसंदेशमयीम् सरस्वतीम् अश्रुतवत् विधाय तम् उर्वीतल-शीतलद्युतिम् इदम् जगाद / टीका-विदर्भाणाम् अयमिति वैदर्भः विदर्भदेशसम्बन्धी यः नरेन्द्रः नृपः ( कर्मधा० ) तस्य नन्दिनो पुत्री दमयन्ती तेन दूतरूपनलेन अपिताम् प्रयुक्ताम् ताम् दिशाम् ईशाः स्वामिनः इन्द्रादयः तेषां संदेश: वाचिकम् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) एवेति सन्देशमयोम् सरस्वतीम् वाणीम् अश्रुतवत् अश्रुतामिव विषाय कृत्वा तम् उाः पृथिव्याः तले पृष्ठे ( 10 तत्पु० ) शीतलद्युतिम् ( स० तत्पु०) शीतला हिमा द्युतिः दीप्तिः रश्मिरित्यर्थः यस्य तथाभूतम् (ब० बी० ) चन्द्रम् नलमित्यर्थः इवम् प्रोच्यमानम् जगाद अवदत् // 2 // व्याकरण-वैदर्भ विदर्भ + अण / नन्दिनी नन्दयतीति - नन्द + णिन् + डीप / संदेशमयीम् संदेश एवेति संदेश + मयट ( स्वरूपार्थे ) + ङीप् / अश्रुतवत् अश्रुता + वत् ( तुल्यार्थे ) पुंवद्भाव / उर्वी ऊर्णोति ( आच्छादयति ) इति Vऊणं + कु णलोप, ह्रस्व + ङीप् / शीतल शीतमस्यास्तीति शीत + लच ( मतुबथं)।