________________ अष्टमः सर्गः 353 व्याकरण ----जलजेन जले जायते इति जल + / जन् + ड / वितन्यमानः वि + /तन् + शानच् ( कर्मवाच्य ) / पूजा पूज् + अ + टाप् / पङ्कजाभाम् पङ्कात् जायते इति पङ्क+/जन् + ड / अनुवाद-"हे. कृशाङ्गि ! तुम्हारे द्वारा प्रति दिन कमलों से की जा रही ( हमारी ) पूजा हमें प्रसन्न नहीं करती, ( तुम्हें ) प्रसन्न करने हेतु नीचे झुकाये ( हमारे ) सिरों की पूजा तो तुम्हारे चरणकमलों से होनी चाहिए" / / 97 // टिप्पणी- भाव यह है कि हम तुम्हारे पूज्य देवता नहीं रहना चाहते हैं / हम तो तुम्हारे कामुक हैं। हमारा वरण करके यदि हमारे प्रणयापराधों के खातिर तुम हमारे झुके हुए शिरों पर दण्ड-स्वरूप अपना पाद-प्रहार करो, तो हमें बड़ी प्रसन्नता होगी। इसे ही हम अपनी असली पूजा समझेंगे। विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कह गये हैं / पदों पर पङ्कजत्वारोप में रूपक, 'पूजा' पूजा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्वर्णवितोर्णैः करवाम वामनेत्रे! भवत्या किमुपासनासु / अङ्ग ! त्वदङ्गानि लिपोतपीतदर्पाणि पाणिः खलु याचते नः / / 98 ___ अन्वयः-हे वामनेत्रे ! भवत्या उपासनासु वितीर्णैः स्वर्णैः किं करवाम / अङ्ग! न पाणि: निपीतपीतदर्याणि त्वदङ्गानि खलु याचते / टीका... बार सुन्दरे नेने ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धी ( ब० वी० ) चारुल चने : रबत्या त्वया उपासनासु अस्मदीय-पूजासु वितीणः अपितैः उपायनरूपेण दत्तरित्यर्थ: स्वर्णः सुवर्णैः वयं कि करशमः करिष्यामः न किमपीति काकुः / अङ्ग इति सम्बोधने अङ्गीकारे वा अव्ययम् नः अस्माकम् पाणिः हस्तः निपीतः नि शेषं पीतः पूर्णतया पराजित इत्यर्थः पोतस्या सुवर्णस्य दर्प: गर्वः (10 तत्पु० ) यः तथाभूतानि ( ब० वी० ) तव अङ्गानि त्वदङ्गानि (50 तत्पु० ) खलु निश्चितम् याचते प्रार्थयते / स्वर्णेन नास्त्यस्माकं प्रयोजनम्, अमा प्रयोजनं तु स्वर्णातिशामित्वदनंरस्तीति भावः / / 98 / / च्या ण-वत्या इसके लिए पीछे श्लोक 95 देखिए। जितीण: वि + Vतृ + क्त, त को न, न को ण, ऋ को ईर करवाm/+ लोट् उ० ब० / __ अकाद--- "हे सुलोचने ! आपके द्वारा ( हमारी) पूजाओं में ( भेंटरूप ) चढ़ाये सुवर्णों से हम क्या करें? देवी ! हमारा हाथ ( तो ) वास्तव में सुवर्ण का अभिमान चूर किये हुए तुम्हारे अंग माँग रहा है" // 98 //