________________ अष्टमः सर्गः 355 यहाँ भ्र शब्द के नदीसंज्ञक न होने से सम्बुद्धि में ( 'अम्बार्थ-नद्योह्रस्वः 7 / 3 / 107 से ) ह्रस्व प्राप्त नहीं है, अत एव भट्टोजी दीक्षित ने सम्बोधन में हे सुभ्रू :! ही रूप दे रखा है और शंका उठाई है-'कथं तर्हि हापितः क्वासि हे सुभ्र ? इति भटिः' / इसका उन्होंने उत्तर दिया है-'प्रमाद एवायमिति बहवः' किन्तु कवि लोग ह्रस्वान्त प्रयोग करते आ ही रहे हैं, देखिए कालिदास— विमानना सुभ्र ! कुतः पितुर्गुहे' ( कुमार० ) इत्यादि / गौरिमा गौरस्य भाव इति गौर + इमनिच / दुर्विदग्धम् दुः= दुष्टं यथा स्यात्तथा विदग्धम् वि = विशेषेण दग्धम् इति वि + / दह + क्तः, जो अच्छी तरह जलाया, पकाया हुआ हो / हानि अथवा विद्या में अच्छी तरह परिपक्व को घिदग्ध - निपुण कहते हैं जिसका विपरीत अविदग्ध अथवा दुविदग्ध = मूर्ख होता है / अनुवाद-“हे कामदेव के धनुष की सजातीय (= सदृश ) भौंह वाली ( दमयन्ती ) ! हम सुनारों की तरह तुम्हारे गौर वर्ण के साथ होड़ करने वाले सुवर्ण को फूक डाला करते हैं" // 99 // टिप्पणी-भाव यह है कि तुम्हारी देह की पीत छटा के आगे सुवर्ण टिक नहीं सकता है, फिर भी मूर्खतावश वह उसकी बराबरी करना चाह रहा है, तो क्यों न हम उसे दण्ड दें, अग्नि में झोंके। दूसरे, स्वर्ण से हमारा भला क्या मतलब। वह हमारी निवास-भूमि-सुमेरु में ढेरों है ही। हम तो उससे कई गुना सुन्दर तुम्हारे अंगों के भिक्षुक हैं। हम पीछे बता आये हैं कि 'स्पर्धा करना’ ‘एक-जातीय होना' आदि लाक्षणिक प्रयोगों को दण्डी ने सादृश्य-बोधनपरक मान रखा है अतः यहाँ दो उपमायें हैं। 'हेम हेम', 'वभ्र बभ्र' में ( बवयोरभेदात् ) यमक, 'नना', 'नेन' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सुधासरःसु त्वदनङ्गतापः शान्तो न नः किं पुनरप्सरःसु / निर्वाति तु त्वन्ममताक्षरेण सूनाशुगेषोर्मधुसोकरेण // 10 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) नः त्वदनङ्गतापः सुधा-सरःसु न शान्तः, किम् पुनः अप्सरःसु / सूनाशुगेषोः मधु-सीकरेण त्वन्ममताक्षरेण तु निर्वाति / टोका-( हे दमयन्ति ! ) नः अस्माकम् त्वया त्वत्कृतः इत्यर्थः अनङ्गस्य कामस्य ( तृ० तत्पु० ) ताप: ज्वरः ( 10 तत्पु० ) सुधायाः अमृतस्य सरःसु सरसीषु न शान्तः निमज्जनेन न दूरी भवतीत्यर्थः किं पुनः अप्सरःसु अपाम् सरःसु