________________ अष्टमः सर्गः थोप रहा है। यहाँ गीत पर अमृतान्धित्वारोप, इन्द्रियों पर हरिणत्वारोप और दमयन्ती पर वागुरात्वारोप में रूपक है। 'मग्नः' क्रिया का अनेक कारकों के साथ सम्बन्ध होने से क्रिया दीपक भी है। शब्दालंकारों में 'नासा श्वासा' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'रण रिण' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / छन्द पूर्ववत् स्रग्धरा ही चला आ रहा है / इति धृतसुरसार्थवाचिकस्रनिजरसनातलपत्रहारकस्य / सफलय मम दूततां वृणीष्व स्वयमवधार्य दिगीशमेकमेषु // 107 / / अन्वयः-"( हे दमयन्ति ! ) इति धृत...कस्य मम दूतताम् ( त्वम् ) सफलय एषु एकम् दिगीशम् स्वयम् अवधायं वृणीष्व"। टीका--(हे दमयन्ती ! ) इति पूर्वोक्तप्रकारेण धृत...सक ( कर्मधा० ) सुराणां देवानाम् सार्थस्य वृन्दस्य ( उभयत्र 10 तत्पु० ) वाचिकस्य सन्देशस्य स्रक माला शृंखला, परम्परेत्यर्थः (10 तत्पु० ) येन तथाभूतस्य ( ब० वी०) तथा निजा स्वीया या रसना जिह्वा ( कर्मधा० ) तस्याः तलम् पृष्ठम् (50 तत्पु० ) एव पत्रम् लेखः ( कर्मधा० ) तस्य हारकस्य आनायकस्य (ष० तत्पु०) मम मे नलस्य दूतताम् दौत्यम् सफलम् सफलीकुरु / एषु इन्द्रादिषु एकम् अन्यतमम् दिशः ईशम् ( ष० तत्पु० ) लोकपालम् स्वयम् आत्मना अवधार्य विनिश्चित्य वृणीष्व वरत्वेनाङ्गीकुरुष्व / इन्द्रादिषु कमप्येकं स्वबुद्धया सम्यक् विचार्य वररूपेण स्वीकुरु, येन मौखिकसन्देशवाहकस्य मम दौत्यं सफलीभबेदिति भावः // 107 / / व्याकरण-सुराः इसके लिए पीछे सर्ग 1 श्लोक 34 देखिए / वाचिकम् वाचा कृतमिति वाच + ठक् / हारकः हरतीति /ह + ण्वुल ( कर्तरि ) / सफलय सफलं करोतीति सफल + णिच् + लोट् ( नामधा० ) अनुवाद-"( दमयन्ती !) पूर्वोक्त प्रकार से देवराज के संदेशों की शृंखला रखे, अपने जिह्वा-तल को पत्र-रूप में लाने वाले मेरे दौत्य को सफल बनाओ। इन ( इन्द्रादि ) में से ( किसी ) एक दिक्पाल का स्वयं निश्चय करके वरण कर लो" // 107 // टिप्पणी नल देवताओं के संदेशों के सिलसिले का उपसंहार करता हुआ दमयन्ता से अनुरोध करता है कि वह बिना निज सखियों से परामर्श किये, स्वयं