________________ 364 नैषधीयचरिते अधिवासे सौरभे ( 10 तत्पु० ) मग्ना भवति; नः रसना जिह्वा तव अधरस्य निम्नोष्ठस्य मधुनि माधुर्ये (10 तत्पु०) मग्ना भवति; नः चित्तम् मनः तव चरित्रेषु चेष्टासु मग्नं भवति; तत् तस्मात् नः कैश्चित् ( अपि ) करणानि इन्द्रियाणि एव हरिणाः मृगाः तैः वागुरा मृगबन्धिनी, जालम् ('वागुरा मृग बन्धिनी' इत्यमरः) वागुराख्पा त्वम् न लब्धिता न अतिक्रान्ता असि / अस्माकं न कोऽपि इन्द्रियरूपो हरिणः वागुरात्मिकायाः त्वत्तः मुक्तिं लब्धं प्रभवतीति भावः // 106 // व्याकरण-स्वप्नः स्वप् + नक् / प्रापितायाः प्र + /आप् + णिच् + क्तः ( कर्मणि)। गीतम् /गै + क्त ( भावे ) / अब्धि आपोऽत्र धीयन्ते इति अप् + /धा + कि (अधिकरणे)। सौकुमार्यम् सुकुमारस्य सुकुमारायाः वा भाव इति सुकुमार + ष्यन् / श्वासः श्वस् + घञ् ( भावे)। अधिवासः अधि + Vवस् + णिच + घन (भावे ) / रसज्ञा रसं जानातीति रस + -ज्ञा + क + टाप् / अधरः इसके लिए पीछे श्लोक 102 देखिए। चरित्रम् चर् + इत्र ( भावे ) / करणम् क्रियते ( ज्ञानम् ) अनेनेति/कृ + ल्युट ( करणे)। ___अनुवाद-"ओ कृशाङ्गी! ( दमयन्ती ! ) हमारी चितवन प्रत्येक रात्रि को स्वप्न द्वारा ( सामने ) लाई हुई तुम्हारी सौन्दर्य राशि में, हमारे कान तुम्हारे गीत-रूपी अमृत-सागर में, हमारी त्वगिन्द्रिय भी तुम्हारी मञ्जरी-सी गात की कोमलता में, हमारी नाक तुम्हारे निश्वासों की सुगन्धि में, हमारी जिह्वा तुम्हारे अधर की माधुरी में तथा हमारा चित्त तुम्हारी चेष्टाओं में डूबा रहता है, इसलिए हमारा कोई भी इन्द्रिय-रूपी हिरन जाल रूप तुमसे नहीं छूट पाया // 106 / / टिप्पणो-भाव यह है कि जाल में फंसे मृग जैसे फंसे के फंसे रह जाते हैं, छूट नहीं सकते, वही हाल हमारा भी है। तुम्हारे तत्तत् अङ्गों में गड़ी हमारी इन्द्रियाँ गड़ी की गड़ी रह जाती हैं / स्वप्न में भी तुम्हें छोड़कर हम और किसी को नहीं देखते, अतः तुमपर इतने अधिक अनुरक्त हुए हम लोगों का तुम्हें वरण कर लेना चाहिए। यहाँ कवि का स्वप्न में देवताओं को दमयन्ती दिखाना एक असंगत-सी बात है, क्योंकि देवताओं को स्वप्न नहीं हुआ करते हैं। यह तो ऐसा लगता है कि मानव नल ही स्वप्न में स्वानुभूत बातों को देवताओं पर