________________ 328 नैषधीयचरिते की यह कल्पना है कि अग्नि को संतप्त करके मानो कामदेव उसे यह सबक सिखा रहा है कि ताप देना कितना बुरा होता है। अग्नि जब स्वयं व्यक्तिगत रूप से अनुभव करेगा, तभी उसे शिक्षा मिलेगी कि मुझे दूसरों को ताप नहीं देना चाहिये। हिन्दी में कहावत भी है-'जाके पड़े न पैर बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई / ' शब्दालंकारों में 'भूयः' 'भूर्या' में यमक, 'संताप्य' 'संतापयि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पञ्चबाण:-इस सम्बन्ध में पीछे श्लोक 4 देखिये। अदाहि यस्तेन दशार्धबाणः पुरा पुरारेनयनालयेन / न निदहस्तं भवदक्षिवासी न वैरशुद्धरधुनाधमणः // 73 // अन्वयः-पुरारे: नयनालयेन तेन पुरा यः दशाधबाणः अदाहि, सः अधुना भवदक्षिवासी सन् तम् निर्दहन वैर-शुद्धेः अधमर्णः न ( भवति ) / टीका-पुराणाम् त्रिपुराणाम् अरेः शत्रोः (10 तत्पु० ) त्रिपुरविनाशकस्य महादेवस्येत्यर्थः नयनम् नेत्रम् एव आलयो गृहम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन (ब० वी० ) महादेवनयनस्थितेनेत्यर्थः तेन अग्निना पुरा पूर्वम् यः दशानाम् अर्धम् (10 तत्पु० ) पञ्चेत्यर्थः बाणाः शराः यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) कामः अदाहि दग्धः स दशार्धबाणः अधुना इदानीम् भवत्याः तव अक्ष्णोः नयनयोः (10 तत्पु० ) वसतीति तथोक्तः (उपपद तत्पु०) सन् तम् अग्निम् निर्दहन् निःशेषं पीडयन्नित्यर्थः वरस्य शत्रुतायाः शुद्धः निर्यातनात् अधमर्णः ऋणी न, ऋणमुक्तो भवति / महादेव-नयन-स्थितोऽग्निः पुरा काममदहत, कामोऽपि दमयन्तीनयनस्थितः सन् इदानीम् अग्निमपि दहन् स्ववरनिर्यातनं करोतीति भावः // 73 // व्याकरण-आलयः आलीयन्ते (वसन्ति ) अति आ + Vली + अच ( अधिकरणे)। अवाहि /दह + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / अधमर्णः अधम + ऋणे इति ऋ+ क्त ( भावे ), त को न ( निपातित ) न को ण ( ऋणमाधमण्ये 8 / 2 / 60) / अनुवाद-"महादेव के नयन में घर किये उस ( अग्नि ) ने पहले जिस काम को जला दिया था, अब तुम्हारे नयन में रहता हुआ वह उस ( अग्नि ) को जलाता हुआ वैर का बदला लेते हुए ऋण चुका रहा है" // 73 //