________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-'जगत् में सब से बड़ी तृष्णा किसकी है?'-यह प्रश्न किया जाय, तो दमयन्ती का प्रेम-भरा कटाक्ष प्राप्त करने की इन्द्र की तृष्णा ही गिनती में सब से पहले आयेगी जिसे पूर्ण करने हेतु वह तड़प रहा है। दमयन्ती! तुम उस पर कटाक्षमात्र कर दो। विद्याधर यहाँ विषमालंकार लिख रहे हैं। कहीं तो स्वयं सहस्र नेत्रों वाला इन्द्र, और कहाँ उसकी दमयन्ती के नेत्र के तृतीय भाग मात्र प्राप्त करने की उत्सुकता। इसे विरुद्ध घटना ही समझिये, जो विषम के लिए भूमि बनाता है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / अग्न्याहिता नित्यमपासते यां देदीप्यमानां तनुमष्टमतेः। आशापतिस्ते दमयन्ति ! सोऽपि स्मरेण दासीभवितुं न्यदेशि // 71 / / अन्वयः-अग्न्याहिताः याम् देदीप्यमानाम् अष्टमूर्तेः तनुम् नित्यम् उपासते, आशापतिः सः अपि हे दमयन्ति ! स्मरेण ते दासीभवितुम् न्यदेशि / टीका-आहितः अग्निः यः ( ब० वी० ) इति अग्न्याहिताः कृताग्न्याधानाः अग्निहोत्रिण इति यावत् याम् देदीप्यमानाम् जाज्वल्यमानाम् अष्टौ मूर्तयः रूपाणि आकाराः इति यावत् यस्य तथाभूतस्य (ब० वी०) महादेवस्येत्यर्थ: तनुम् शरीरम् नित्यम् सदा उपासते सेवन्ते यस्यां नित्यहवनं कुर्वन्तीत्यर्थः आशायाः दिशायाः पतिः स्वामी (10 तत्पु० ) स: अग्निः अपि हे दमयन्ति ! स्मरेण कामेन ते तव अदासः दासः सम्पद्यमानो भवितुमिति दासीभवितुम् न्यदेशि आदिष्टः अर्थात् कामः तस्मै अग्नये अपि आज्ञां ददौ 'स्वम् दमयन्त्याः दासो भवेति' अग्निदेवोऽपि त्वय्यनुरक्तोऽस्तीति भावः / / 71 // __व्याकरण-अग्न्याहिताः ब० बी० में 'आहित' शब्द का पूर्व निपात प्राप्त था, किन्तु “वाहिताग्न्यादिषु" ( 2 / 2 / 37 ) से राजदन्त की तरह वैकल्पिक पर-निपात है / देदीप्यमानाम् दीप् + यङ (क्रियासमभिव्याहारे ) द्वित्व + शानच् ( कर्तरि ) / दासीभवितुम् दास + चि, ईत्व. Vभृ + तुमुन् / न्यदेशि नि + दिश् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / ____ अनुवाद-"अग्निहोत्री लोग आठ मूर्तियों वाले महादेव की धधकती हुई जिस देह की नित्यप्रति उपासना किया करते हैं, उस दिक्पाल ( अग्नि ) को भी कामदेव तुम्हारा दास बनने को आज्ञा दे बैठा है" // 71 // टिप्पणी-इन्द्र का प्रणय-निवेदन समाप्त करके अब नल इस श्लोक से