________________ 338 नैषधीयचरित के स्पर्श से समुद्र भी प्रतप्त हो पड़े हैं अर्थात् वरुण का विरहानल बड़वानल से भी अधिक तीव्र है। यहाँ विद्याधर अतिशयोक्ति कह रहे हैं, क्योंकि पयोनिधियों से ताप का सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है। दो विभिन्न 'वारियों' का श्लेषमुखेन अभेदाध्यवसाय होने से अभेदातिशयोक्ति भी है। काव्यलिङ्ग स्पष्ट ही है। 'पाय' 'पयो' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। अश्वामुखोत्थः शिखावान्-इसके लिए पीछे सर्ग 4 श्लोक 48 और 60 देखिए / यत्प्रत्युत स्वन्मृदुबाहुवल्लीस्मृतिस्रजं गुम्फति दुविनीता। ततो विधत्तेऽधिकमेव तापं तेन श्रिता शैत्यगुणा मृणाली / / 82 // अन्वयः तेन श्रिता, शैत्यगुणा.. दुविनीता मृणाली यत् त्वन्मृ स्रजम् गुम्फति, ततः प्रत्युत अधिकम् एव तापम् विधत्ते / टीका-तेन वरुणेन श्रिता सेविता तापोपशमनाय स्वशरीरोपरि स्थापितेत्यर्थः दुविनीता दुः = दुष्टं विनीता ( प्रादि तत्पु० ) कुशिक्षिता दुष्टेति यावत् मृणाली लघुमृणालम् यत् यस्मात् तव मृदु-बाहुवल्ली ( 10 तत्पु० ) मृदुः कोमल: बाहुः भुजा ( कर्मधा० ) वल्ली लतेव ( उपमित तत्पु० ) तस्याः स्मृतीनाम् स्त्रजम् मालाम् आवलिमिति यावत् ( उभयत्र ष० तत्पु०) गुम्फति ग्रथ्नाति रचयतीत्यर्थः, मृणाली त्वत्कोमलभुजलतां स्मारयतीति भावः, ततः तस्मात् प्रत्युत पंपरीत्येन अधिकम् प्रचुरम् एव तापम् संतापं विधत्त जनयति / मृणालीद्वारा स्मृतत्वन्मृदुभुजलताको वरुणोऽधिकतरं तापमनुभवतीति भावः // 82 // व्याकरण-शत्यम् शीतस्य भावः इति शीत + ष्यन् / मृणाली मृणाल + डोष अल्पार्थ में, जैसे कोशकार ने भी कहा है-'स्त्री स्यात्काचिन्मणाल्यादिविवक्षापचये यदि' / बाहुः यास्कानुसार 'बाधते इति सतः' - Vबाध् + कुः ध को ह। ___ अनुवाद-"उस ( वरुण ) द्वारा ( शरीर पर ) रखी, गुण में ठंडी, दुष्ट मृगाली क्योंकि तुम्हारी लता-जैसी मृदु भुजा की स्मृतियों का तांता बाँध देती है, इसलिए वह उल्टा अधिक ही ताप उत्पन्न कर देती है // 82 // टिप्पणी- यहाँ मणाली को देखकर तत्सदृश भुजवल्ली की स्मति होने से स्मरणालंकार है। उसे रखा था ठंडक पहुँचाने के लिए, उल्टा वह ताप दे रही है-यहाँ विषमालंकार है / इन दोनों का संकर समझिए / बाहु बल्ली में लुप्तो