________________ अष्टमः सर्गः 339 पमा है, विद्याधर विरोधालंकार के साथ छेकानुप्रास भी कह रहे हैं / छेक ‘यत्' 'युत' में ही हो सकता है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / न्यस्तं ततस्तेन मृणालदण्डखण्डं बभासे हृदि तापभाजि / तच्चित्तमग्नमंदनस्य बाणैः कृतं शतच्छिद्रमिव क्षणेन // 83 // अन्वयः-ततः तेन तापभाजि हृदि न्यस्तम् मृणालदण्डखण्डम् तच्चित्तमग्नै: मदनस्य बाणः क्षणेन शतच्छिद्रम् कृतम् इव बभासे / टीका-ततः तदनन्तरम् तेन वरुणेन तापम् कामज्वरम् भजतीति तथोक्ते ( उपपद तत्पु० ) हृदि वक्षसि न्यस्तम् स्थापितम् मृणालस्य विसस्य दण्डस्य यष्टे: खण्डम् शकलम् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) तस्य घरुणस्य चित्त मनसि (ष० तत्पु०) मग्नः निखातः ( स० तत्पु० ) मदनस्य कामस्य बाणैः शरैः शतं च्छिद्राणि यस्मिन् तथाभूतम् ( ब० वी० ) कृतम् विहितम् इव बभासे प्रातीयत / मृणालखण्डे स्वभावतः एव छिद्राणि भवन्ति, किन्तु कविकल्पनया तानि कामवाणकृतानीव दृश्यन्ते इति भावः / / 83 // व्याकरण- तापभाजि ताप+भज् क्विप् ( कर्तरि ) स० / न्यस्तम् नि + / अस् + क्त ( कर्मणि ) मदनः मदयतीति/मद् + णिच् + ल्युः / छिद्रम् Vछिद् + रक्। अनुवाद-'तत्पश्चात् उस ( वरुण ) के द्वारा ( अपनी ) तपती हुई छाती पर रखा हुआ मृणाल-दण्ड का टुकड़ा ऐसा लगा जैसे उस ( वरुण ) के हृदय में घुसे काम के बाणों से क्षण में ही उसमें सैकड़ों छेद कर दिये गये हों" // 83 // टिप्पणी-अब तक तो वरुण जितनी भी मणालियों को रखता जाता था, वे सभी दमयन्ती की भुज-लता के स्मारक बन जाया करती थीं, इसलिए उसने अब मृणाल का एक टुकड़ा ही छाती पर रखा, किन्तु काम जो बाण छोड़ता, वे मृणाल खण्ड के बीच में से होकर हृदय के भीतर जाते, अतः उसमें सैकड़ों छेद हुए पड़े रहत हैं। यह कवि की एक मार्मिक कल्पना ही समझिये, क्योंकि छेद तो मृणालखण्ड में स्वतः रहते ही हैं। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। इति त्रिलोकीतिलकेषु तेषु मनोभुवो विक्रमकामचारः / अमोघमस्त्रं भवतीमवाप्य मदान्धतानर्गलचापलस्य // 84 //