________________ 320 नैषधीयचरिते टिप्पणी-पूर्वोक्त तीन श्लोकों में कवि ने सामान्य रूप से चारों दिक्पालों का दमयन्ती-विषयक अनुराग चित्रित किया है, किन्तु अब व्यक्तिगत रूप में पृथक् 2 वर्णन कर रहा है। मुख्य होने से इन्द्र का ग्रहण पहले किया गया है। दमयन्ती जब बच्ची ही थी, तब काम का चाप बेकार ही पड़ा हुआ था। उस पर प्रत्यञ्चा एक सिरे पर ही लगी हुई थी, किन्तु दमयन्ती पर यौवन क्या निखरा कि काम ने धनुष की प्रत्यञ्चा दूसरे सिरे पर से भी बाँध दी ताकि प्रहार किया जा सके। इन्द्र का युवा दमयन्ती पर प्रेम और कामदेव के धनुष की प्रत्यञ्चा दोनों एक साथ ही परा कोटि को पहुंचे। वास्तव में इन्द्र का प्रेम दमयन्ती पर पहले हुआ तब जाकर कामदेव ने उस पर अपना प्रहार किया, किन्तु यहाँ दोनों को युगपत् बताने से कार्यकारण-पौर्वापर्यविपर्ययातिशयोक्ति है, जो 'सार्धम्' से बनी सहोक्ति को बना रही है, अत: अतिशयोक्ति और सहोक्तिका परस्पर संकर है। कोटि शब्द में श्लेष है जिसका एक अर्थ उत्कर्ष और दूसरा अटनी धनुष का आखरी सिरा है। इसलिए प्रेम और कामचाप की प्रत्यञ्चा-दोनों प्रकृत-प्रकृतों का कोटयधिरोहण रूप एक कर्माभिसम्बन्ध होने से तुल्ययोगिता भी है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। प्राची प्रयाते विरहादयं ते तापाच्च रूपाच्च शशाङ्कशङ्को। परापराधैनिदधाति भानौ रुषारुणं लोचनवृन्दमिन्द्रः / / 62 / / अन्वयः-अयम् इन्द्रः ते विरहात् तापात् च रूपात् च शशाङ्कशङ्की सन् प्राचीम् प्रयाते भानौ परापराधैः रुषा अरुणम् लोचन-वृन्दम् निदधाति / टीका-अयम् एष इन्द्रः ते तव विरहात् वियोगात् तापात् सन्तापजनकस्वात् रूपात् उदयसमये चन्द्रवत् रक्तवर्णत्वात् वर्तुलाकारत्वाच्च सूर्ये शशाङ्कम् शशः शशकः अङ्कः चिह्न ( कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूतम् (ब० वी० ) चन्द्रमित्यर्थः शङ्कते शङ्काविषयीकरोतीति यथोक्तः ( उपपद तत्पु०) सन् प्राचीम् पूर्वदिशाम् प्रयाते आगते भानो सूर्ये परस्य अन्यस्य चन्द्रस्येत्यर्थः अपराधैः दोषैः रुषा क्रोधेन अरुणम् रक्तवर्णम् लोचनानाम् सहस्रसंख्यकनेत्राणाम् वृन्दम् समूहम् ( 10 तत्पु० ) निवधाति निक्षिपति / तव विरहे इन्द्रः प्रातः पूर्वदिशि उदयन्तं चन्द्रवत् तपन्तं रक्तवर्ण गोलाकारं च सूर्यं दृष्ट्वा एष चन्द्रः मां संतापयतीति दिवा सूर्ये चन्द्रस्य भ्रान्त्या रोषलोहितानि निजसहस्रनेत्राणि तस्मिन् प्रक्षिपति इति भावः // 61 //