________________ 322 नैषधीयचरिते स्था + अ + टाप् / गन्ता गम् + लुट् / वेद /विद् + लट, लट् को विकल्प से णल। अनुवाद-त्रिनेत्रधारी ( महादेव ) ने ही क्रोध में जो कुछ किया है उसके ( प्रभाव ) को ही जो कामदेव आज तक छिपा नहीं पा रहा है, वह सहस्रनेत्रधारी ( इन्द्र ) के रुष्ट हो जाने पर किस दशा को प्राप्त होगा मैं निश्चय ही नहीं जानता // 63 // टिप्पणी-त्रिनेत्रवाले महादेव ने ही रुष्ट होकर जब काम को भस्म करके : अनङ्ग बनाकर केवल भावात्मक-रूप रहने दिया है, तो हजार नेत्रों वाले इन्द्र के रुष्ट होने पर उसकी क्या गति हुई होती राम जाने / भाव यह है कि काम इन्द्र को बड़ा उत्पीड़न दे रहा है। विद्याधर यहाँ उत्प्रेक्षा कह रहे हैं जो समझ में नहीं आती महादेव का त्रिनेत्र तथा इन्द्र का सहस्रनेत्र शब्द से प्रतिपादन यहाँ साभिप्राय है इसलिए विशेष्यों के साभिप्राय होने से कुवलयानन्द के अनुसार परिकराङकुर अलंकार है। 'कामः' 'काम' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पिकस्य वाङ्मात्रकृताद्वयलीकान्न स प्रभुनन्दति नन्दनेऽपि / बालस्य चूडाशशिनोऽपराधान्नाराधनं शीलति शूलिनोऽपि // 64 / / अन्वयः- स प्रभुः पिकस्य वाङ्मात्रकृतात् व्यलीकात् नन्दने अपि न नन्दति, बालस्य चूडा-शशिनः अपराधात् शूलिनः अपि आराधनम् न शीलति / टीका-स प्रभुः समर्थः इन्द्रः पिकस्य कोकिलस्य वाक् एव वाङ्मात्रम् तेन कृतात् विहितात् व्यलीकात् अप्रियात् ('अलीकं त्वप्रियेऽनृते' इत्यमरः) नन्दने नन्दयतीति नन्दने आनन्ददायके एतदाख्ये उपवने अपि न नन्दति आनन्दं लभते, नालस्य कृशस्य एककलामात्रस्येत्यर्थः चूडायाम् जटायाम् वर्तमानस्य शशिनः चन्द्रस्य अपराधात् आगसः कारणात् चन्द्रकृतपीडनादिति यावत् शूलिनः शूलधारिणः शिवस्येत्यर्थः अपि आराधनम् पूजाम् न शीलति न करोति / सर्वजनानन्दकरे नन्दनवनेऽपि इन्द्र: कोकिलकटुरुत्या दुःखमेति, स्वपीडकस्यापराधिनः चन्द्रस्य कलां चूडायां धारयन्तं शिवमपि नाचतीति भावः // 64 // व्याकरण-प्रभुः प्रभवतीति प्र+भू + छ। वाक् उच्यते इति / वच् + क्विप् दीर्घ, सम्प्रसारणाभाव / शशी शशः अस्मिन्नस्तीति शश + इन् (मतुबर्थ)। अपराधः अप +/राध् + घन् ( भावे ) / शूली शूलमस्यास्तीति शूल + इन् (मतुबर्थ ) / आराधनम् आ + /राध् + ल्युट् ( भावे ) /