________________ 322 नैवधायचरिते धृताधृतेस्तस्य भवद्वियोगादन्यान्यशय्यारचनाय लूनैः। अप्यन्यदारिद्रयहराः प्रवालेर्जाता दरिद्रास्तरवोऽमराणाम् / / 67 // अन्वयः-अमराणाम् तरवः अन्य-दारिद्रयहराः अपि (सन्तः ) भवद्वियोगात् धृताधृतेः तस्य अन्यान्यशय्यारचनाय लूनैः प्रवालः दरिद्राः जाताः / टीका- अमराणाम् देवतानाम् तरवः वृक्षाः मन्दारादयः अन्येषाम् परेषाम् दारिद्रयस्य द्रव्याद्यभावस्य हराः नाशकाः ( उभयत्र ष० तत्पु०) सन्तः अपि भवत्याः तव वियोगात् विरहात् कारणात् धृता धारिता अधृतिः अधैर्यम् (कर्मधा०) येन तथाभूतस्य ( ब० बी० ) तस्य इन्द्रस्य अन्याः अन्याः प्रतिक्षणं तापनिवारणार्थम् नूतना-नूतना इत्यर्थः याः शय्याः शयनानि ( कर्मधा० ) तासां रचनाय निर्माणाय ( 10 तत्पु० ) लून: प्रोटित: प्रवालैः नवकिसलयः दरिद्राः रहिता इत्यर्थः जाताः अभवन् / कामतापोपशमनाय क्षण-क्षणे नव-नवशयनरचनाविधी छिन्नै: पल्लवैः मन्दारादयः स्वर्गतरवः शुन्याः जाताः इति भावः // 67 // व्याकरण-अमरा: म्रियन्ते इति म + अच् ( कतरि) मराः न मरा इति ( नन तत्पु० ) / दारिद्रयम् दरिद्रस्य भाव इति दरिद्र + ष्यन / धृतिः धृ+ क्तिन् ( भावे ) / अन्यान्य वीप्सा में द्वित्व / शय्या शय्यतेऽत्रेति/शी + क्यप् + टाप / दरिद्राः दरिद्रतीति दरिद्रा + कः / ___ अनुवाद-“अन्य लोगों का दारिद्रय मिटा देनेवाले होते हुए भी देवताओं के ( मन्दार आदि ) वृक्ष आपके वियोग के कारण धैर्य खोये हुए उस ( इन्द्र) की (प्रतिक्षण ) अन्य-अन्य शय्याओं की रचना हेतु तोड़े हुए किसलयों से दरिद्र (खाली) हो गये हैं" // 67 // टिप्पणी-इन्द्र का काम-ताप इतना बढ़ रहा है कि ठंडक पहुंचाने के लिए मन्दार आदि सुरवृक्षों के पत्तों की शय्या बनानी पड़ रही है। वह भी इतनी शीघ्र गर्म हो जाती है कि क्षण-क्षण में नयी शय्या बनाई जाती है। भाव यह निकला कि तुम्हारा वियोग इन्द्र को बड़ी उत्पीड़ना दे रहा है / विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति और विरोधाभास लिख रहे हैं। अतिशयोक्ति इस रूप में है कि प्रतिक्षण अन्यान्य शय्याओं अथवा सभी किसलयों के त्रोटन के साथ असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है। जो दारिद्रयापहारक हैं, वे दरिद्र हैंइसमें विरोध है, जिसका परिहार दरिद्र का अर्थ 'रहित' करने से हो जाता है / 'धृता' 'धृते', 'दारिद्रय' 'दरिद्रा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।