________________ अष्टमः सर्गः 293 है इसलिए वह ( काम ) मोह = मूर्खता के कारण 'मुग्ध' ( मूर्ख ) है, सुन्दर देह के कारण 'मुग्ध' ( सुन्दर ) नहीं" // 39 // टिप्पणी-साहित्य में सुन्दर भौंहों की तुलना कामदेव के पुष्प-चाप से की जाती है। प्रकृत में नल की भौंहों की रचना के समय मूर्खता-वश कामदेव अपना धनुष ब्रह्मा को दे बैठा और स्वयं धनुष-रहित हो गया। इससे नल के सौन्दर्य में बृद्धि हो गई और वह कामदेव को ही भ्रूभंग-मात्र से पराजित करने लगे / मूर्ख यदि अपना शस्त्र शत्रु को दे बैठे तो निःशस्त्र हो वह अपने दिये शस्त्र से ही शत्रु द्वारा क्यों न जीत लिया जायेगा। काम वास्तव में मुग्ध = मूर्खता के कारण मूर्ख है, न कि सुन्दर शरीर के कारण मुग्ध = सुन्दर है। भाव यह निकला कि नल की भौंहें काम के चाप-जैसी और कामोद्दीपक हैं। विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कह रहे हैं, क्योंकि भ्र और चाप से भेद होते हुए भी दोनों का अभेदाध्यवसाय हो रखा है। 'यदा तदा' में पदगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। मृगस्य नेत्रद्वितयं तवास्ये विधौ विधुत्वानु मितस्य दृश्यम् / तस्यैव चञ्चत्कचपाशवेषः पुच्छः स्फुरच्चामरगुच्छ एषः // 40 / / अन्वयः-तव आस्ये विधौ विधुत्वानुमितस्य मृगस्य नेत्र-द्वितयम् दृश्यम्; तस्य एव चञ्चत्कचपाशवेषः एषः पुच्छः स्फुरचामरगुच्छः ( दृश्यः ) / ___टीका-तव ते आस्ये मुखे एव विधौ चन्द्रे तव मुखचन्द्रे इत्यर्थः विधुत्वेन चन्द्रत्वेन अनुमितस्य अनुमितिविषयीकृतस्य मृगस्य हरिणस्य नेत्रयोः नयनयोः द्वितयम् द्वयम् दृश्यम् द्रष्टु शक्यमस्ति दृश्यते इत्यर्थः यद्यपि मृगः स्वयं न दृश्यते निष्कलकत्वान्मुखस्य / तस्य एव मृगस्य चञ्चन् विलसन् कचपाशः केशकलापः ( कर्मधा० ) तस्य वेषः रूपम् व्याज इति यावत् ( 10 तत्पु० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) एष पुच्छः स्फुरन् लसन् चामर-गुच्छ: केशस्तवकः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) दृश्यः, दृष्टिविषयीभवतीत्यर्थः / चन्द्रो हि मृगाङ्कः अर्थात् मृगस्तस्मिन् तिष्ठति, तव मुखमपि चन्द्रोऽस्ति किन्तु तत्र मृगो न दृश्यते, तस्य नयनद्वयम् त्वन्नयनद्वयरूपे, पुच्छकेशसमूहश्च त्वत्केशपाशरूपे दृश्यते इति भावः // 40 //