________________ 301 नैषधीयचरिते टिप्पणी-भाव यह है कि जो-जो प्रश्न मैंने किये हैं, उन सबका उत्तर देने की कृपा कीजियेगा। प्रसन्न होकर जो कुछ तुम कहोगे, वह कानों को अमृत का पान करने का सा आनन्द देगा। यहाँ वचन और अमृत में भेद होने पर भी दोनों का अभेदाध्यवसाय कर रखा है, अतः भेदे अभेदातिशयोक्ति है / 'गिरम्' पर प्रसादत्वारोप में रूपक है / 'तावत्तव' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / इत्थं मधूत्थं रसमुगिरन्ती तदोष्ठबन्धूकधनुर्विसृष्टा / कर्णात्प्रसूनाशुगपञ्चबाणी वाणीमिषेणास्य मनो विवेश // 50 // अन्वयः-इत्थम् मधूत्थम् रसम् उगिरन्ती तदोसृष्ठ "टा प्रसूबाणी वाणीमिषेण कर्णात् अस्य मनः विवेश / ____टीका-इत्थम् एवम् मधुनः माक्षिकात् उत्तिष्ठति उत्पद्यते इति तम् ( उपपद तत्पु० ) रसम् धाराम् मकरन्दप्रवाहमित्यर्थः उगिरन्ती स्रवन्ती तस्याः दमयन्त्याः ओष्टः दन्तच्छदः (10 तत्पु० ) एव बन्धूकम् बन्धुजीवः ( 'थन्धूको बन्धुजीवः' इत्यमरः ) तदेव धनुः चापः ( कर्मधा० ) तेन विसृष्टा मुक्ता ( तृ तत्पु० ) प्रसूतानि पुष्पाणि आशुगाः बाणाः यस्य तथाभूतस्य कामदेवस्येत्यर्थः (ब० वी० ) पञ्चवाणी ( 10 तत्पु० ) पञ्चानां बाणानां समाहारः ( समाहार द्विगु ) वाण्याः वाचः मिषेण व्याजेन ( 10 तत्पु० ) कर्णात् कर्णं प्रविश्य अस्य नलस्य मनः मानसम् विवेश प्राविशत् / दमयन्त्याः मदुमधुरवचनानि निशम्य नलः कामपीडितोऽभवदिति भावः // 50 // व्याकरण-इत्थम् इदम् + थम् ( प्रकारवचने ) / मधूत्थम् मधु + उत् + /स्था + क ( कर्तरि ) / उगिरन्ती उत् + /ग + शतृ + ङीप् / प्रसूनम् प्र + Vसू + क्त, त को न / आशुगः आशु गच्छतीति आशु + गम् + ड / कर्णात कर्णं प्रविश्य ल्यप्-लोप में पञ्चमी। __ अनुवाद-इस तरह मकरन्द रस उगलते हुए उस ( दमयन्ती ) के होंठरूपी गुड़हल पुष्प के धनुष से फेंके कामदेव के पांच ( पुष्प-रूप ) बाण वाणी के बहाने इस ( नल ) के कान से होकर मन के भीतर प्रवेश कर गये // 50 // टिप्पणी-कामदेव के पांचों बाणों के एक साथ प्रवेश करने से जिस तरह कामव्यथा होती है, वैसे ही दमयन्ती की वाणी को सुनकर नल को भी हुई। ओष्ठ पर बन्धूकत्वारोप में रूपक, वाणी-मिषेण में अपह्नुति, 'वाणी'