________________ 312 नैषधीयचरिते निकला कि प्रिया को देख उत्पन्न हुए काम को नल ने धैर्य के साथ दबा दिया और उसे अपने पर हावी नहीं होने दिया। दमयन्ती पर रणभूमित्वारोप और उसके भौहों पर कामचापत्वारोप होने से रूपक तथा धैर्य और काम भावों के चेतनीकरण से समासोक्ति है / धैर्य और मनोभब के साथ क्रमशः जय और भंग का अन्वय होने से यथासंख्यालंकार भी है। शब्दालंकारों में 'भैमी' 'भूमि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अथ स्मराज्ञामवधीर्य धैर्यादूचे स तद्वागुपवीणितोऽपि / विवेकधाराशतधौतमन्तः सतां न कामः कलुषीकरोति // 54 / / अन्वयः-अथ तद्-वागुपवीणितः अपि सः धैर्यात् स्मराज्ञाम् अवधीर्य ऊचे ! कामः विवेकधारा गतधौतम् सताम् अन्तः न कलुषीकरोति / टीका-अथ एतदनन्तरम् तस्याः दमयन्त्याः वाक् वाणी (10 तत्पु०) तया उपवीणितः वाग्रूपवीणया उपगीतः स्तुत इति यावत् ( तृ० तत्पु० ) अपि स नल; धैर्यात् दृढमनोबलात् धैर्यमवलम्ब्येत्यर्थः स्मरस्य कामस्य आज्ञाम् आदेशम् अवधीयं अवज्ञाय ऊचे उवाच, प्रियामुखात् स्वप्रशंसां निशम्यापि नलः कामाधीनो न, जातः इति भावः। कामः विवेकानाम् कर्तव्याकर्तव्यबोधानाम् धाराणां प्रवाहानाम् शतः ( उभयत्र ष० तत्पु० ) धौतम् प्रक्षालितम् ( तृ० तत्पु० ) अन्तः अन्तःकरणम् न अकलुषं कलुपं सम्पद्यमानं करोतीति कलुषीकरोति मलिनीकरोति / विवेकिनः कामवशीभूताः न भवन्तीति भावः / / 54 // व्याकरण--उपवीणित: उप + वीणा + णिच + क्त ( 'सत्यापपाश० 3 / 1 / 25 ) / धैर्यात् इसके लिए पिछला श्लोक देखिये / धैर्यात् धैर्यमवलम्ब्य ल्यप् के लोप में पंचमी है। आज्ञा आ + ज्ञा+ अ + टाप / अवघीय यह चुरादि के अवज्ञार्थक अवधीर् धातु का रूप नहीं समझना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में क्त्वा को ल्यप् नहीं हो सकता है, अवधीरयित्वा ही रहेगा, इसलिए यहाँ अधिपूर्वक ईर् समझिये / अधीर् से फिर अव उपसर्ग लाकर उसे शकन्ध्वादि गण के अन्तर्गत करके व के अ का पररूप मान लें तब अवधीर्य प्रयोग बन सकेगा। ऊचे / + लिट ब्रू को वचादेश / कलुषीकरोति कलुष+च्चि, ईत्व/कृ लट् / अनुवाद-तत्पश्चात् उस ( दमयन्ती ) की वीणा-जैसी वाणी द्वारा प्रशंसित हुआ भी वह ( नल ) धैर्य रखकर कामदेव की आज्ञा ठुकरा करके बोले / .