________________ 314 नैषधीयचरिते __ अनुवाद-"( हे दमयन्ती ! ) स्वर्ग के स्वामियों ( इन्द्रादि ) के. सन्देश बड़े आदर के साथ प्राणों की तरह हृदय में संजोये हुए मुझे तुम दिक्पालों की सभा से आया हुआ अपना ही अतिथि समझो" // 55 // टिप्पणी-यहाँ नल-दमयन्ती के पूछे हुए 'कहाँ से आये हो ?' 'किसके अतिथि हो ?' इन दो प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं। साथ ही 'गुरुणा आदरेण' से वे अपने दूतधर्म की ओर भी संकेत कर रहे हैं। सन्देशों की हृदय के भीतर छिपाये प्राणों से तुलना करने में उपमा है, 'रुणा' 'रेण' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विरम्यतां भूतवती सपर्या निविश्यतामासनमुज्झितं किम् / या दूतता नः फलिना विधेया सैवातिथेयो पृथुरुद्भवित्री // 56 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) विरम्यताम् सपर्या भूतवती; निविश्यताम्; आसनम् किम् उज्झितम् ? या नः दूतता फलिना विधेया सा एव पृथु: आतिथेयी उद्भवित्री। टोका-( हे दमयन्ति ! ) विरम्यताम् विरामः क्रियताम्, सपर्या पूजा आतिथ्यमित्यर्थः ( 'सपर्या हंणा समा' इत्यमरः / भूतवती जाता; निविश्यताम् उपविश्यताम्, आसनम् किम कस्मात् उज्झितम् त्यक्तम्, या नः अस्माकम् दूतता दूत्यम् फलिना फलवती सफलेति यावत् विधेया करणीया सा एव पृथुः महती आतिथेयो अतिथि सत्कारः उद्धवित्री उत् = उच्चैः भवित्री भविष्यति / मत्कार्य: साफल्यमेव मे आतिथ्यमिति भावः // 56 // ___ व्याकरण-विरम्यताम् वि + रम् + लोट् ( भाववाच्य ) / सपर्याः सपर् ( कण्ड्वा० ) + यक् + अ + टाप् / भूतवती/भू + क्तवत् + ङीप् / निविश्यताम् नि + /विश् + लोट् ( भाववाच्य ) / फलिना फल + इनच् ( ‘फल-वभ्यिा . मिनज् वक्तव्यः ) + टाप् / आतिथेयो इसके लिए पीछे श्लोक 52 देखिए / उद्धवित्री उत् + V भू + तृच् + ङीप् / अनुवाद-"( दमयन्ती ! ) बस करो; अतिथि-सत्कार हो गया है; बैठ जाओ; आसन क्यों छोड़ा है ? जो हमारा दूत-कर्म सफल बना दिया जाय, तो वही बड़ी भारी अतिथि-सेवा होगी" // 56 // टिप्पणी-आसन छोड़ देना आदि उपचार छोड़ो। जिस काम के खातिर