________________ अष्टम: सर्ग: 303 अनुवाद-"यह मेरी बुद्धि संदेह के भूले पर चढ़कर क्या-क्या बोलती है यह मैं नहीं जान पा रही हूँ। तुम किसी पुण्यशाली के घर के अतिथि हो अथवा झूठी कल्पना नहीं करनी चाहिए ( कि तुम मेरे ही अतिथि हो )" // 48 // टिप्पणी-दमयन्ती के मन में आगन्तुक के सम्बन्ध में तरह-तरह के विचार उठ रहे हैं कि यह कौन होगा-नल हैं या अन्य, मेरे पास आये हैं या कहीं अन्यत्र जा रहे हैं, मैं इतनी भाग्यशालिनी कहाँ जो मेरे पास आय इत्यादि इत्यादि / विद्याधर यहाँ आक्षेप अलंकार कह रहे हैं / यह वहाँ होता है, जहाँ किसी विवक्षित बात को ऊपरी तौर से दबा दिया जाता अथवा उसका निषेध कर दिया जाता है / सन्देह पर दोलात्वारोप में रूपक है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। प्राप्तैव तावत्तव रूपसृष्टि निपीय दृष्टिर्जनुषः फलं मे। अपि श्रुती नामृतमाद्रियेतां तयोः प्रसादीकुरुषे गिरं चेत् // 49 // अन्वयः-तावत् मे दृष्टिः तव रूप-सृष्टिम् निपीय जनुषः फलम् प्राप्ता एव, ( अथ ) श्रुती अपि अमृतम् नाद्रियेताम् चेत् गिरम् तयोः प्रसादीकुरुषे ? टीका-तावत् प्रथमतः मे मम दृष्टि: दृक् तव ते रूपस्य सौन्दर्यस्य सष्टिम्स् रचनाम् ब्रह्मणः सृष्टी लोकोत्तरसौन्दर्यमित्यर्थः निपीय सादरं विलोक्य जनुषः स्वस्य जन्मनः फलम् प्रयोजनम् प्राप्ता लब्धा एव, दृष्टिः स्वजीवनसाफल्यमवाप्तवती एवेत्यर्थः अथ श्रुती कणों अपि अमृतम् सुधाम् न आद्रियेताम् आदरेण न पिबताम् किमिति काकुः अपि तु आद्रियेतामेव चेत् यदि गिरम् स्वीयां वाणीम् तयोः श्रुत्योः अप्रसादं प्रसादं सम्पद्यमानं कुरुषे इति प्रसादीकुरुषे प्रसन्नीभूय मम प्रश्नोत्तरं दास्यसीत्यर्थः / मम चक्षुषा तब लोकोत्तरसौन्दर्य पीतम् अथ कौं अपि त्वद्वचनामृतं पातुमिच्छतः इति भावः // 49 // __व्याकरण-निपीय इस सम्बन्ध में सर्ग 1 का श्लोक 1 देखिए / दृष्टिः दृश्यते अनयेति /दृश् + क्तिन् ( करणे)। जनुस/ जन् + उस् / श्रुति श्रूयते:नयेति श्रु + क्तिन् ( करणे ) / अमृतम् / मृ + क्त ( भावे ) न मृतम् ( मृत्यु : ) येन तत् ( नत्र ब० वी० ) / प्रसादीकुरुषे प्रसाद + च्चि, ईत्व कृ% + लट् / अनुवाद--"पहले तुम्हारी सौन्दर्य-सृष्टि का पान करके आँखों ने जन्म का फल पा लिया है, ( अब ) कान भी क्या अमृत ( पान ) का आदर न करें यदि ( तुम ) उनको वाणी का प्रसाद दो तो?" // 49 //