________________ अष्टमः सर्गः अत्यन्त सुन्दर है। तुम में मैं उनकी प्रतिच्छाया पा रही हूँ। शंका होती है कि तुम नल तो नहीं हो क्या? यहाँ उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक 'जाने' शब्द है / विद्याधर पूर्वार्ध विशेष बात का उत्तरार्ध सामान्य बात से समर्थन में अर्थान्तरन्यास कहते हैं, जो ठीक ही है। वे उपमा भी मानते हैं जो 'संसार-सिन्धौ' में है किन्तु हमारे विचार से यह रूपक है / संसार पर सिन्धुत्वारोप के बिना प्रतिबिम्ब की उपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि प्रतिबिम्ब के लिए जल चाहिए, जो सिन्धुत्वारोप में ही संभव है, औपम्य में नहीं। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। 'बिम्ब' एक से अधिक बार आवृत्त होने से वृत्त्यनुप्रास ही बना रहा है। हो 'दृष्टा' 'सृष्टिः' में ष, ट की सकृत् आवृत्ति में छेक बन सकता है / इयत्कृतं केन महीजगत्यामहो महीयः सुकृतं जनेन / पादौ यमुद्दिश्य तवापि पद्यारजःसु पद्मस्रजमारभेते / / 47 // अन्वयः-केन जनेन महीजगत्याम् इयत् महीयः सुकृतं कृतम् अहो ! यम् उद्दिश्य तव अपि पादौ पद्यारजस्सु पद्मस्रजम् आरभेते / टीका-केन जनेन व्यक्त्या मही चासो जगती जगत् तस्याम् ( उपपद तत्पु०) भूलोके इत्यर्थः इयत् एतावत् महीय: महत्तरम् सुकृतम् पुण्यम् कृतम् अनुष्ठितम् अहो! इत्याश्चर्ये यम् जनम् उद्दिश्य लक्ष्यीकृत्य तव अतिसुकुमारस्य महापुरुषस्य अपि पावौ चरणी पद्यायाः मार्गस्य रजस्सु धूलिषु पद्मानां कमलानाम् स्रजम् मालाम् आरभेते रचयतः कोऽस्त्येतादृशः पुण्यात्मा यस्य पार्वे तादृशः सुकोमलस्त्वम् पादचारी गच्छसीति भावः // 47 // व्याकरण-मही इसके लिए पीछे श्लोक 44 देखिये / जगती गम् + अति ( निपातनात् साधुः ) महीयः अतिशयेन महत् इति महत् + ईयसुन् / सुकृतम् सु + कृ + क्त ( भावे ) / पद्या पदमस्यां दृश्यमिति पद + यत् + टाप् / स्रज सृज्यते इति सृज् + क्विप् ( निपातनात् साधुः ) / अनुवाद-"आश्चर्य है कि किस व्यक्ति ने भूलोक में इतना बड़ा भारी पुण्य कर रखा है, जिसको लक्ष्य करके तुम्हारे तक के भी पैर मार्ग की धूलि पर कमलों की माला बना रहे हैं ?" // 47 / / टिप्पणी-तुम-जैसे इतने सुकोमल महापुरुष जिस व्यक्ति के पास पैदल ही जावें, उसे महापुण्यशाली होना चाहिये। यहाँ धूलि पर पैरों की छाप पर