________________ अष्टमः सर्गः 297 श्रेष्ठ ब्राह्मण के पद पर बिठाते हैं। शिल-खेत काट लिये जाने के बाद छुटी-पड़ी अन्न की बाल और उञ्छ-नीचे गिरे पड़े अन्न-कण बटोरने को कहते हैं / विद्या. धर यहाँ अतिशयोक्ति कह रहे हैं; क्योंकि यहाँ विभिन्न अर्थों का अभेदाध्यवसाय है / हमारे विचार से यदि 'यज्वराज्ये' के स्थान में कवि 'द्विजराजत्वे' पद रखता तो बात अधिक संगत बैठती, क्योंकि द्विज तारों और ब्राह्मणों दोनों को बोलते हैं / चन्द्रमा द्विजराज नक्षत्रेश है / 'यज्वराज' में यह बात नहीं बनती है / हम प्रतीयमान दूसरे अर्थ को उपमाध्वनि ही कहेंगे / 'शीलि' 'शिलों' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आदेहदाहं कुसुमायुधस्य विधाय सौन्दर्यकथादरिद्रम् / त्वदङ्गशिल्पात्पुनरीश्वरेण चिरेण जाने जगदन्वकम्पि / / 43 / / अन्वयः-कुसुमायुधस्य आदेह-दाहम् जगत् सौन्दर्य-कथा-दरिद्रम् विधाय त्वदङ्गशिल्पात् ईश्वरेण पुनः चिरेण अन्वकम्पि / ___टीका-कुसुमानि आयुधानि यस्य तथाभूतस्य ( व० बी० ) कामस्येत्यर्थः देहस्य शरीरस्य दाहः महादेवकर्तृकभस्मीकरणम् (10 तत्पु०) आरभ्येति ०दाहम् ( अव्ययी० ) जगत् संसारम् सौन्दर्यस्य लावण्यस्य कथया वार्तया (10 तत्पु० ) दरिद्रम् शून्यं ( तृ० तत्पु० ) विधाय कृत्वा सम्प्रति तव अङ्गम् शरीरम् तस्य शिल्पात् रचनात् कारणात् ईश्वरेण भगवता पुन: मुहुः चिरेण चिरकालानन्तरम् अन्वकम्पि अनुगृहीतम् इत्यहं जाने मन्ये / महादेवकृतकामदेवदाहानन्तरम् लोके सौन्दर्यस्य कथैव समाप्ता चिरञ्च लोकः सौन्दयं-रहित एवासीत् किन्तु इदानीं कामदेवस्य स्थाने तव सुन्दरदेहं निर्माय ईश्वरेण जगतः उपरि महती कृषा कृतेति भावः / / 43 // व्याकरण-दाहः/दह + घञ् ( भावे ) / जगत् गच्छतीति /गम् + क्विप् ( कर्तरि ) द्वित्व और तुगागम निपातित / सौन्दर्यम् सुन्दरस्य भाव इति सुन्दर + ण्यञ् / कथा/कथ + अङ् ( भावे ) टाप् / दरिद्रः दारिद्रयतीति। दरिद्रा + कः / अनुवाद--कामदेव के देह के भस्म किये जाने ( की घटना ) से लेकर जगत् को सौन्दर्य-रहित करके ( अब ) तुन्हारे शरीर के निर्माण के कारण ईश्वर ने बहुत समय के बाद (जगत् पर) कृपा की है, ऐसा मुझे लगता है // 43 //