________________ 194 नैषधीयचरिते - व्याकरण-आस्ये अस्यते = प्रक्षिप्यते अन्नादि अत्रेति/ अस् + ण्यत् ( अधिकरणे ) / द्वितयम् द्वौ अवयवौ अत्रेति द्वि+ तयप् / चञ्चत् चञ्च + शतृ / पाश: पश्यते ( बध्यते ) अनेनेति /पश् ( वन्धने ) + घन ( करणे ) / यास्क का भी यही कहना है-'पाशः विपाशनात् / अनुवाद-"तुम्हारे मुख-चन्द्र में चन्द्रत्व-लिङ्ग से अनुमीयमान मृग की दो आँखें दिखाई दे रही हैं। उस ( मृग) का ही ( तुम्हारे ) लहरा रहे केशपाश का वेष बनाये यह पुच्छ दिखाई दे रहा है जिसके गुच्छेदार बाल चमक रहे हैं // 40 // टिप्पणी-नल का मुख चन्द्रमा है। इसलिए उसके भीतर मृग का रहना स्वाभाविक है / यद्यपि वह प्रत्यक्ष तो नहीं हो रहा है, किन्तु उसका हम अनुमान कर सकते हैं जैसे 'मुखचन्द्रः समृगः चन्द्रत्वात् यत्र-यत्र चन्द्रत्वम्, तत्र तत्र समृगत्वम् आकाशस्थचन्द्रवत् / हाँ, स्वयं अदृश्य होने पर भी उसकी आँखें तुम्हारी आँखों के रूप में, तथा उसकी पूंछ तुम्हारे केशपाश के रूप में सामने दीख ही रही हैं / भाव यह निकला कि तुम्हारा मुख चाँद-सा, नयन मृग के से और वाल चामर जैसे हैं / मुख पर चन्द्रत्वारोप में रूपक और वेष शब्द के व्याजाथं. परक होने से अपह्नुति है। मल्लिनाथ उत्प्रेक्षा कह रहे हैं जो समझ में नहीं आती / 'विधौ' 'विधु' तथा 'पुच्छः' 'गुच्छ' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / इस श्लोक की तुलना पीछे सर्ग 2 श्लोक 83 से कीजिए / आस्तामनङ्गीकरणाद्भवेन दृश्यः स्मरो नेति पुराणवाणो। तवैव देहं श्रितया श्रियेति नवस्तु वस्तु प्रतिभाति वादः // 41 // अन्वयः-स्मरः भवेन अनङ्गीकरणात् दृश्यः न इति पुराणवाणी आस्ताम् तु तव एव देहम् श्रितया श्रिया अनङ्गीकरणात दृश्यः न इति नवः वादः वस्तु प्रतिभाति / टीका-स्मरः कामः भवेन महादेवेन अनङ्गीकरणात् शरीररहितीकरणात् भस्मीकरणादिति यावत् दृश्यः नयनविषयीभूतः न अस्तीति शेषः इति पुराणी प्रचीनकालीना वार्ता पारम्पर्यकथा, अर्थात् कामो महादेवेन स्वतृतीयनयनाचिषा भस्मीकृतः तस्मात् स लोकलोचनपथं नायातीति पुराणी वार्ता त्यज्यताम्, तु किन्तु तव ते एव देहम् श्रितया अधिष्ठितया तव देहे वर्तमानयेति यावत् श्रिया