________________ अष्टमः सर्ग: 260 अन्वयः-'नल-श्री-भृति दूते भावि-भावा इयम् कलङ्किनी नूनम् मा जनि" इति विधिः इमाम् प्रति नैषधकायमायम् इन्द्रम् स्वयं दूतम् न संव्यधात् / टीका-नलस्य श्रियम कान्तिम रूपमिति यावत ( 10 तत्पु० ) विर्भात धारयतीति तथोक्ते ( उपपद तत्पु० ) दूते प्रेष्ये भावी भविष्यन् भावः अनुरागः (कर्मधा०) यस्याः सा (ब० बी०) इयम् दमयन्ती कलङ्कः पापम् अथ चापकीर्तिः अस्याः अस्तीति तथोक्ता नूनम् तर्के मा जनि न भवेत् इति विचार्य विधिः ब्रह्मा इमाम् दमयन्तीम् प्रति उद्दिश्य नैषधस्य नलस्य कायः शरीरम् (10 तत्पु०) इव माया वपटम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (व० वी०) धृतनलरूपमित्यर्थः इन्द्रम् मघोनम् स्वयम् आत्मना एव दूतम् प्रेष्यम् न संन्यधात् अकरोत् / इन्द्रः नलरूपं धृत्वा स्वयमेव दूतीभूतः दमयन्त्याः सविधे अगमिष्यत् चेत् तहि तस्मिन् नलभिन्ने इन्द्रे नल-वृद्धया अनुरागं कुर्वती सा पातिव्रत्य भंगपापमाश्रयिष्यदिति कृत्वा ब्रह्मा नलम् एवेन्द्रदूतं चकार, एवं सति दूतरूपो नलः सत्य एव नलः, तस्मात् तस्मिन्ननुरागे न कलङ्क:-प्रसज्यते इति भावः // 16 // व्याकरण-भृति- भृ + किप ( कर्तरि ) त० / मा जनि जन् + लुङ ( कर्तरि ) मा के योग में अडागम के अ का लोप / विधिः विदधातीति वि + Vघा + कि ( कर्तरि ) / संव्यधात् सम् + वि + /धा लुङ् / अनुवाद-'नल की शोभा-रूप -. घारण किये दत-रूप इन्द्र पर अनुरक्त हुई यह ( दमयन्ती ) सम्भवतः कलकिनी न हो बैठे'--यह सोचकर ब्रह्मा ने इस ( दमयन्ती ) के पास नल का छद्म-वेष बनाये इन्द्र को स्वयं दूत नहीं बनाया / / 16 / / टिप्पणी-- देवता लोग सर्वशक्तिमान् हआ करते हैं, वे जो चाहें, बन सकते हैं अतः यदि ब्रह्मा चाहता तो इन्द्र स्वयं ही अपनी इच्छा से नल का रूप धारण करके दमयन्ती के पास दूत रूप में जा सकता था। स्वयंवर के समय वह नलरूप धारण करके बैठा हुआ तो था / किन्तु ब्रह्मा को यह नहीं रुचा, क्योंकि ऐसी स्थिति में झूठा नल बने हुए इन्द्र को दमयन्ती असली नल समझ कर उससे अनुराग कर बैठती / इस तरह नल से भिन्न के साथ अनुराग करने पर दमयन्ती का सतीत्व खतरे में पड़ जाता और वह पापभागिनी बन जाती। इसी लिये ब्रह्मा ने नल का रूप धारण करके इन्द्र को नहीं भेजा, प्रत्युत नल को ही इन्द्र