________________ भरमः सर्गः 287 अनुवाद-“शोभा के यश से महादेव के पर्वत-कैलास-को जीत लेने वाले पुरुरवा की शोभा को बलात् छीनकर तुम उसका शिर लज्जा-भारसे नीचे करवा रहे हो; शोभा के यश से कैलास को जीतने वाले अश्विनीकुमारों की शोभा को बलात् छीनकर तुम उन्हें रुलवा रहे हो; तथा शोभास कैलाश को जीतने वाले कामदेवकी शोभा को छीनकर तुम उसका सौन्दर्याभिमान चूर कर रहे हो" // 34 // टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि तुम पुरूरवा, दो अश्विनी कुमार और कामदेव इन चारों से अधिक सुन्दर हो / सौन्दर्यप्रतियोगिता में तुम से हार कर पुरूरवा जहाँ लाज से सिर नीचे कर रहा है, वहाँ अश्विनीकुमार रोने लग रहे हैं; और कामदेव गत-दर्प हो हाथ मल रहा है। ध्यान रहे कि संस्कृत कवि-जगत् में यश को श्वेत रंग का माना जाता है, इसी लिए यश को यहाँ अपनी श्वेतिमा से कैलाश की हिमानी श्वेतिमा को पछाड़े बैठा चित्रित किया गया है / यहाँ एक 'करोषि' क्रिया के साथ अनेक कारकों-पुरूरवा, अश्विनीकुमार और कंदर्प के साथ सम्बन्ध बताने से कारक दीपक है / 'शोभा' 'शोभि' 'मौलि' 'मैलम्' तथा 'दर्प' 'दर्पम्' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / अवैमि हंसावलयो वलशास्त्वत्कान्तिकीर्तश्चपलाः पुलाकाः / उड्डोय युक्तं पतिताः स्रवन्तीवेशन्तपूरं परितः प्लवन्ते // 35 // अन्वयः- वलक्षा हंसावलयः त्वत्कान्ति-कीर्तेः चपला: पुलाकाः ( इति ) अवैमि ( अत एव ) उड्डीय स्रवन्ती-वेशन्त-पूरम् परित: प्लवन्ते ( इति ) युक्तम् / टीका-वलक्षाः धवलवर्णाः ( 'वलक्षो' 'धवलोऽर्जुनः' इत्यमरः ) हंस नाम् मरालानाम् आवलयः श्रेणयः ( 10 तत्पु० ) तव कान्तिः सौन्दर्यच्छटा तस्याः कीर्ते: यशसः ( उभपत्र 10 तत्पु० ) चपलाः चञ्चलाः इतः उतः प्रसरणशीलाः इति यावत् पुलाकाः तुच्छधान्यानि ( 'स्यात् पुलाकस्तुच्छधान्ये' इत्यमरः) सन्तीत्यहम् अवैमि मन्ये अत एव उड्डीय उत्पत्य स्रवत्यः नद्यश्च वेशन्ताः पल्वलाश्चेति तेषाम् ( द्वन्द्व ) . 'वेशन्तः पल्वलं चाल्पसरः' इत्यमरः) पूरं प्रवाहम् परितः समन्ततः प्लवन्ते तरन्ति, नदीनां पल्वलानां च प्रवाहं परितः प्लवमानाः हंसाः त्वत्कीर्तिपुलाका इव प्रतीयन्ते इति भावः // 35 //