________________ 280 नैवधीयचरिते व्याकरण-कान्ति: किम् +क्तिन् / कीतिः कृ + क्तिन्, ऋ को ईर् / लवन्ती + + डीप् / पूरम् परितः के योग में द्वि० / अनुवाद-"श्वेत हंसों की पंक्तियां तुम्हारे सौन्दर्य-यश के इधर-उधर विखरते जा रहे पुआल हैं-ऐसा मैं समझती हूँ, ( इसीलिए ) उड़कर वे नदियों और ताल-तलैयाओं के जल-प्रवाह के चारों ओर तैर रहे हैं-( यह ) उचित ही है" // 35 // टिप्पणी-यश का वर्ण साहित्य में श्वेत होता है-यह हम पिछले श्लोक में कह आये हैं। इसलिए दमयन्ती आगन्तुक के माध्यम से नल के सौन्दर्य-यश को श्वेत कहती हुई नदी-पल्वलों में तैरते जा रहे श्वेत हंसों पर यश के पुआलों की कल्पना कर रही है। हवा के वेग से पुआल हल्के होने से इधर-उधर उड़ते रहते हैं। इसलिए उत्प्रेक्षा है। 'वल' 'वल' में यमक, 'पला' 'पुला' 'पूरं' 'परि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / भवत्पदाङ्गुष्ठमपि श्रिता श्रीध्रुवं न रब्धा कुसुमायुधेन / रतोशजेतुः खलु चिह्नमस्मिन्नर्धन्दुरास्ते. नखवेषधारी / / 36 // अन्वयः-कुसुमायुधेन भवत्पदाङ्गुष्ठम् अपि श्रिता श्रीः ध्रुवम् न लब्धा / अस्मिन् खलु नखवेषधारी अर्धेन्दुः रतीशजेतुः चिह्नम् आस्ते / टीका-कुसुमानि पुष्पाणि आयुधानि यस्य तथामूतेन (ब० वी ) कामदेवेनेत्यर्थः भवतः तव पदस्य पादस्य अङ्गुष्ठम् बृहदङ्गुलिम् अपि आश्रिता अधिष्ठिता श्रीः शोभा ध्रुवम् निश्चितम् यथा स्यात्तथा न लब्धा प्राप्ता / कामस्त्व. त्पादाङ्गुष्ठस्यापि शोभां न धत्ते सर्वशरीरस्य तु वार्तंव केति भावः / अस्मिन् अङ्गुष्ठे खलु नखस्य वेषम् रूपम् (10 तत्पु० ) धारयतीति तथोक्तः ( उपपदतत्पु० ) अर्धः इन्दुः चन्द्रः रत्याः ईशः पतिः काम इत्यर्थः तस्य जेत: विजयिनः महादेवस्य चिह्नम् आस्ते वर्तते / तवाङ्गुष्ठो नखव्याजेन महादेवस्य चिह्नम् अर्धचन्द्रं धत्ते इतिनिज शत्रु-चिह्नम् विलोक्य कामो भयात् दूरतः एव पलायते, तच्छ्रीग्रहणं कर्तुं न शक्नोतीति भावः // 36 / / व्याकरण-सरल है। अनुवाद-“कामदेव ने सचमुच आपके पैर के अंगूठे तक की भी शोभा नहीं पाई है, क्योंकि इस ( अंगूठे ) में नख का वेष धारण किये अर्धचन्द्र कामदेव के विजेता ( महादेव ) का चिह्न है" // 36 //