________________ अष्टमः सर्गः 275 यह उचित है कि वह फिल हाल हाथ जोड़कर हृदय की निष्कपटता को अपनी आतिथ्य-सामग्री का रूप देवे" // 22 // ___ टिप्पणी-अतिथि-सत्कार न करना तो अपराध है ही, लेकिन उसमें विलम्ब करना भी अपराध के अन्तर्गत आ सकता है, इसलिए जब तक पूरी आतिथ्य-सामग्री तय्यार नहीं होजाती तब तक गृहस्थी को अतिथि के आगे हाथ जोड़ विनम्रतापूर्वक सौजन्य भाव दिखाते रहना चाहिए। यही उसकी अपने अतिथि के लिए प्राथमिक आतिथ्य सामग्री है। विद्याधर के शब्दों में 'अत्र काव्यलिङ्गमलंकारः' / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। पुरा परित्यज्य मयात्यजि स्वमासनं तत्किमिति क्षणं न। अनहमप्येतदलं क्रियेत प्रयातुमोहा यदि चान्यतोऽपि // 23 // अन्वयः-मया पुरा स्वम् आसनम् परित्यज्य अत्यसजि तत् अनहम् अपि एतत् क्षणम् किमिति न अलंक्रियेत यदि च अन्यतः अपि प्रयातुम् ईहा (अस्ति) ? नार्थस्थानम् परित्यज्य विहाय अत्यजि भवते दत्तमस्ति, तत् तस्मात् अनहम् अयोग्यम् अपि एतत् आसनम् क्षणम् (कालात्यन्तसंयोगे द्वि०) किमिति कस्मात् न अलंक्रियेत अधिष्ठीयेत इत्यर्थं महामहिमशालिनो भवतः कृते काममिदं मदासनम् नोचितम्, तथापि मुहूर्तमत्र स्थीयतामिति भावः, यदि चेत् च अन्यतः अन्यत्र अपि प्रयातुम् गन्तुम् ईहा इच्छा अस्ति // 23 // व्याकरण-आसनम् इसके लिए पीछे श्लोक 21 देखिए। अत्यजि अति + सृज + लुङ ( कर्मवाच्य ) / अनहम् अर्हतीति /अर्ह + अच ( कर्तरि ) न अहम् इत्यनहम् ( नञ् तत्पु० ) अन्यल: अन्य + तस् ( सप्तम्यर्थ ) ईहा-ईह + अ + टाप् / अनवाद-"मैंने पहले ही अपना आसन ( आपके लिए ) दे दिया है अतः यदि अन्यत्र भी कहीं जाने की इच्छा हो, तो भी क्षण भर के लिए इसे क्यों न शोभित किया जाय भले ही यह आपके योग्य न हो ?" // 23 // टिपणी-दमयन्ती आगन्तुक को महामहिमशाली समझती हई अपना स्थान उसकी महिमा के योग्य नहीं समझ रही है। वह यह भी नहीं समझ रही है कि यह व्यक्ति उसी के पास आया है, क्योंकि वह अपना भाग्य इतना ऊँचो