________________ 2.6 नैषधीयचरिते नहीं देखती। फिर भी शिष्टाचार का पालन करती हई अतिथि को आसन देकर क्षण भर बैठने का अनुरोध कर ही रही है। विद्याधर यहां विभावना कह रहे हैं, जो समझ में नहीं आती है 'पुरा' 'परि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। निवेद्यतां हन्त समापयन्तो शिरीषकोषम्रदिमाभिमानम्। पादौ कियद्रमिमो प्रयासे निधित्सते तुच्छदयं मनस्ते // 24 // अन्वयः-"तुच्छदयम् ते मनः शिरीष....नम् समापयन्ती इमी पादौ कियद्दूरम् प्रयासे निधित्सते ?" हन्त ! निवेद्यताम् / टोका-"( हे श्रेष्ठपुरुष ! ) तुच्छा रिक्ता क्या कृपा ( कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूतम् निर्दयम् निष्ठरमिति यावत् (शून्यं तु वशिकं तुच्छ-रिक्तके' इत्यमरः) ते तव मनः चित्तम् शिरीषाणाम् एतदाख्यपुष्पविशेषाणम् कोषः समूहः तस्य य: नदिमा मार्दवं ( उभयत्र 10 तत्पु० ) तस्मिन् अभिमानम् गर्वम् ( स० तत्पु०) समापयन्तो निराकुवंन्ती इमौ एतो ते पादौ चरणी कियत कियत्परिमाणं दूरम् विप्रकर्षः यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( ब० वो० ) प्रयासे क्लेशे निधित्सते निधातुमिच्छसि ?" हन्त ! इत्यनुकम्पायाम् निवेखताम् विज्ञाप्यताम् / निष्ठरो भवान् निजकोमलचरणी कियदूरगमनेन क्लेशे पातयसीति भावः // 24 // ___ व्याकरण-प्रविमा मृदोः भावः इति मृदु + इमनिच्,ऋ को र / अभिमाना अभि + /मन् + घन ( भावे ) / प्रयास प्र + यस् + घन ( भावे ) निषित्सते नि+/धा + सन् + लट्, आ को इ, अभ्यास का लोप / श्लोक-गत सारा वाक्य 'निवेद्यताम्' क्रिया का कर्म बना हुआ है। अनुवाद--"( हे श्रेष्ठ पुरुष | ) खेद है कि तुम्हारा कठोर मन शिरीष के पुष्प-समूह की कोमलता-विषयक अभिमान चूर कर देने वाले तुम्हारे इन चरणों को कितने दूर ( जाने ) के कष्ट में डालना चाहता है।" कहिये // 24 // टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि यहीं तक आकर तुम थक गये हो, अब यहाँ से आगे कहाँ जाओगे? बहुत थक जाओगे। यहीं विश्राम करो। शिरीष के गर्व को मिटा देने में हम उपमा कहेंगे, क्योकि दण्डी ने ऐसेऐसे प्रयोगों को जैसा हम पीछे बता आये हैं--सादृश्यपर्यवसायी मान रखा है। विद्याधर उत्प्रेक्षा कह रहे हैं, जो समझ में नहीं आ रही है। वे 'हन्त' 'यन्ती' में न, त वर्णों की आवृत्ति में छेक कह रहे हैं, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है /