________________ 282 नैषधीयचरिते (तृ० तत्पु० ) लोकः जनः अथ संसारः ( कर्मधा० ) ( 'लोकस्तु भुवने जने' इत्यमरः) येन तत्सम्बुद्धी ( ब० वी० ) यः अन्ववाय: वंशः एनम् प्रत्यक्षदृश्यम् त्वाम् एव पीयूषम् अमृतम् मयूखेषु यस्य तथाभूतम् अमृतांशुम् चन्द्रमिति यावत् (ब० वी० ) असूत जनितवान् अतएव उदन्वता समुद्रेण सार्धम् सह साधु सम्यक् यथा स्यात्तया स्पधितुम् स्पर्धा कर्तुम् धावति शीघ्र गच्छति झटिति बुद्धौ समुद्रण सह साम्यमापादयतीत्यर्थ: ननु सम्बोधने अयम् एषः अन्ववायः कः अस्तीति शेषः त्वम् कस्मिन् वंशे जन्म गृहीतवानिति भावः / / 30 // व्याकरण-अन्ववाय: अनु + अव+ अ + घन्। तृप्तीकृत तृप्त + च्वि, ईत्व कृ + क्त ( कर्मणि ) / असूत/सु + लङ् / उइन्वता-उदकान्यस्मिन् सन्तीति उदक+ मतुप उदक शब्द को उदन् निपातित ( 'उदन्वानुदधौ च' 8 / 2 / 13 ) / अनुवाद-“हे आलोक ( दर्शन, प्रकाश ) से लोक ( लोगों, जगत् ) को तृप्त कर देने वाले / जिस कुल ने तुम्हें चन्द्ररूप में जन्म दिया है, ( अत एव) जो समुद्र के साथ पूरी स्पर्धा करने जा रहा है, वह यह ( कुल ) कौन है ?" // 30 // टिप्पणी - यहाँ कवि दमयन्ती के माध्यम से नल को पूछ रहा है कि तुम किस कुल के चाँद हो ? नल में और चाँद में वह साम्य बता रहा है। दोनों अपने आलोक से लोक को तृप्त कर देते हैं। नल-पक्ष में आलोक का अर्थ दर्शन और चन्द्र पक्ष में प्रकाश है। इसी तरह नल-पक्ष में लोक का अर्थ होता है लोग और चन्द्र पक्ष में संसार / यह शाब्द सादृश्य हुआ, लेकिन 'तृप्तीकृत' में आर्थ सादृश्य भी है। अतः यह श्लेष है। नल पर चन्द्रत्वारोप में रूपक है और स्पर्धा करने को सादृश्य-वाचक बताया है / 'लोक' 'लोक' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भूयोऽपि बाला नलसुन्दरं तं मत्वामरं रक्षिजनाक्षिबन्धात् / आतिथ्यचाटून्यपदिश्य तत्स्थां श्रियं प्रियस्यास्तुत वस्तुतः सा // 31 / अन्वयः-सा बाला तम् रक्षिजनाक्षिबन्धात् नल-सुन्दरम् अमरम् मत्वा आतिथ्य-चाटूनि अपदिश्य तत्स्थाम् प्रियस्य श्रियम् वस्तुतः भूयः अपि अस्तुत / टोका-सा बाला तरुणी दमयन्ती तम् आंगन्तुकम् रक्षिण: रक्षकाश्च ते