________________ 281 नैषधीयचरिते पीडाकरं भवतीत्यर्थ', अल्पीयसि अत्यल्पे जल्पिते कथने वर्णने इति यावत् तु खलत्वम् दुर्जनत्वम् भवति अर्थात् बहुगुणवतः पूर्णतया गुणावर्णने लोके पुरुषः खल इत्युच्यते, तत् तस्मात् कारणात् बन्दिनः स्तुतिपाठकस्य यो भ्रमः भ्रान्तिः (ष० तत्पु० ) तस्य भूमेर्भावः भूमिता स्थानता एव अस्तु भवतु / गुणाद्भुतस्य विस्तरेण गुणवर्णने यदि कश्चित् स्तुतिपाठकस्य भ्रमं करोति अर्थात् एष स्तुतिपाठक इति बुद्धि करोति तहि करोतु नाम, किन्तु विस्तृतगुणवतो वर्णनेन विस्तरशः भवितव्यमेवेति भावः // 32 / व्याकरण---अद्भुते इसके लिए पीछे श्लोक 1 देखिए। मोनिता मुनेर्भावः मौनम् इति मुनि + अण् , मौनमस्मिन् अस्तीति मौन + इन् ( मतुबर्थ ) मोनिनो भाव इति मौनिन् + तल् + टाप् / जन्म /जन् + मनिन् / वैफल्यम् विफलस्य भाव इति विफल + ष्यन् / अल्पीयसि अतिशयेन अल्पम् इति अल्प + ईयसुन् / जल्पिते / जल्प् + क्त ( भावे ) / अनुवाद-"अद्भुत गुण वाली वस्तु के विषय में यदि चुप्पी साध ली जाय, तो यह वाणी के जन्म की विफलता है जो एक असह्य शल्य है, किन्तु यदि बहुत ही कम कहा जाय, तो यह नीचता है, इसलिए ( विस्तार से गुणवर्णन में यदि ) लोगों के स्तुति-पाठक-भाट के भ्रम का पात्र होना पड़े, तो होने दो" // 32 // टिप्पणी-यदि इस श्लोक को कवि की उक्ति कहा जाय, तो यह बड़ी अच्छी सूक्ति है, जो एक सार्वजनीन तथ्य का प्रतिपादन कर रही है। मानवता के नाते अद्भुत गुणों वाले व्यक्ति अथवा वस्तु की हमें अवश्य खुलकर प्रशंसा करनी चाहिए। उसके सम्बन्ध में चुप रह जाने में वाणी की कोई प्रयोजनीयता नहीं रहती। फिर तो वह ब्रह्मा ने वेकार ही बनाई समझो। यदि मुख से वाणी खोली और गुणों के सम्बन्ध में जितना कहना चाहिए, उतना न कहकर बहुत कम शब्द कहें, तो यह भी नीचता समझो। यह काम दुर्जनों का होता है जैसे कहा भी है—'गुणपरिचितामार्यां वाणी न जल्पति दुर्जनः'। इसलिए गुणों की प्रशंसा मुक्त-कंठ से होनी चाहिए। इस पर यदि लोग हमें भ्रमवश भाट कहें, भूठे प्रशंसक झोलीचुक अथवा 'चमचा' कहें, तो हमें इसकी कोई पर्वाह नहीं करनी चाहिए। इसीलिए कवि पीछे कितनी ही बार नल के गुणों का वर्णन