________________ अष्टमः सर्गः 277 अनायि देश: कतमस्त्वयाद्य वसन्तमुकस्य दशां वनस्य / त्वदाप्तसंकेततया कृतार्था श्रव्यापि नानेन जनेन संज्ञा // 25 // अन्वयः-त्वया अद्य कतमः देशः वसन्त-मुक्तस्य वनस्य दशाम् अनायि ? त्वदाप्त-संकेततया कृतार्था संज्ञा अपि अनेन जनेन न श्रव्या ( किम् ) ? टीका- त्वया अतिथिना अद्य अस्मिन् दिने कतमः बहूनां मध्ये कः एकः देशः वसन्तेन सुरभिणा मुक्तस्य परित्यक्तस्य ( तृ० तत्पु० ) वनस्य काननस्य दशाम् अवस्थाम् भनायि प्रापि ? कस्माद् देशात् आगतोऽसीत्यर्थः ? त्वयि आप्तः प्राप्तः ( स० तत्पु० ) संकेतः वाच्य-वाचकभावसम्बन्धः ( कर्मधा० ) यया तथाभूतायाः (ब० वी० ) भावः तत्ता तया त्वयि संकेतादित्यर्थः कृतः अर्थः प्रयोजनं यया तथाभूताया ( ब० वी० ) संहा नाम अपि अनेन जनेन मया दमयन्त्या इत्यर्थः न धन्या न श्रोतुं योग्या किम् ? स्वनामापि प्रोच्यतामित्यर्थः // 25 // व्याकरण-अद्य अस्मिन् अहनि इति इदम् + द्य, इदम् को अ। किन्तु यास्काचार्य अद्य शब्द को 'अस्मिन् द्यवि' में अस्मिन् का आद्य अक्षर अ और द्यवि का आद्य अक्षर द्य लेकर दो शब्दों का संक्षिप्त रूप ( Short form ) मानते हैं / कतमः किम् + डतमच / अनायि /नी + णिच् + लुङ् (कर्मवाच्य)। संज्ञा सम् + /ज्ञा + अ + टाप् / भन्या श्रोतुं योग्या इति श्रु + यत् + टाप् / __ अनुवाद-"तुमने आज कौन-सा देश वसन्त से रहित हुए वन की अवस्था को पहुंचाया है ? तुम पर संकेत होने से कृतार्थ हुई संज्ञा इस जन के सुनने योग्य नहीं है ( क्या )?" / / 25 // टिप्पणो—संकेतः यह साहित्य का एक पारिभाषिक शब्द है। न्यायशास्त्र में इसे 'समय' अथवा 'शक्तिग्रह' कहा गया है। लोकव्यवहार हेतु पदार्थों का नामकरण आवश्यक होता है, इसलिए पद और पदार्थ का 'अस्मात् पदात् अयमर्थो बोद्धव्यः' इस तरह अभिधानाभिधेयभाव अथवा वाच्यवाचकभाव सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ती है। इसे 'संकेत' कहते हैं। दमयन्ती 'तुम्हारा क्या नाम है, यों सीधा न पूछकर इस तरह पूछ रही है कि वह कौनसा संज्ञाशब्द है, जिसके तुम वाच्य हो' ? यहाँ वसन्त-मुक्त वन की दशा वन में ही रह सकती है, देश में नहीं इसलिए असंभवद्-वस्तु सम्बन्ध में यहाँ बिम्बप्रतिबिम्बभाव है अर्थात् तुमसे विरहित देश की दशा वैसी है, जैसे वसन्त से विरहित वन