________________ अष्टमः सर्गः 269 अनुवाद-कौन ऐसा व्यक्ति है, जिसका मन पुण्य ( करने ) के विषय में निश्चय किए बैठा हो भले ही वह मुनि भी क्यों न हो, क्योंकि मन पाप की ओर भी दौड़ा करता है ? किन्तु जिस भक्त पर भगवान् की दया होती है, उसके पाप का विचार करने वाले चित्त को वे रोक देते हैं // 17 // टिप्पणी गीता में अर्जुन ने भगवान् कृष्ण को यही बात कही थी'चञ्चलं हि मनः कृष्ण ! प्रमाथि बलवद् दृढम्' / इस आधार पर दमयन्ती की बात दूर रही. बड़े-बड़े योगिराजों तक के मन डगमगा कर भटक जाया करते हैं / दमयन्ती को जब निश्चय हो रखा है कि इस अन्तःपुर में नल का आना कदापि संभव नहीं, तो नल-जैसे अन्य व्यक्ति पर अनुराग दिखाना क्यों पातिव्रत्य भंग न करेगा ? मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रश्न पूरा तर्क-पूर्ण है. किन्तु इसका उत्तर यह है कि दयालु भगवान् भक्तों के मन को पाप की ओर जाने से रोक देते हैं। यही उनकी भगवत्ता है. भक्ति का फल है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अन्त में यही कहा था-'अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः' / दमयन्ती के सतीत्व पर आँच न आने देने हेतु भी भगवान् अथवा ब्रह्मा ने इन्द्र के मन में यह विचार उठने ही नहीं दिया कि वह स्वयं नल रूप धारण कर उसके पास जावे / दमयन्ती पर 'हृष्यत्करुण' परमेश्वर की इच्छा ही से इन्द्र नल को अपना दूत बनाकर भेजने को विवश हुआ। विद्याधर यहाँ अर्थान्तरन्यास कह रहे हैं, किन्तु श्लोक में कही गई समर्थक बात सामान्य बात है, विशेष समर्थ्य बात कोई नहीं; अतः यदि पूर्व श्लोक का सम्बन्ध इस श्लोक से जोड़ लिया जाय, जिसमें विशेष बात कही गई है तो अर्थान्तरन्यास ठीक है, अन्यथा यह कवि की सामान्य सूक्ति है / 'मनः' 'मुने' 'रुणो' 'रुण' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सालीकदृष्टे मदनोन्मदिष्णुयथाप शालोनतमा न मौनम् / तथैव तथ्येऽपि नले न लेभे मुग्धेषु क: सत्यमृषाविवेकः // 18 // __ अन्वयः-शालीनतमा सा मदनोन्मदिष्णुः ( सती ) अलीकदृष्टे' नले यथा मौनम् न आप, तथा एव तथ्ये अपि ( नले ) मौनम् न लेभे / मुग्धेषु सत्यमृषाविवेकः कः ?