________________ 270 नैषधीयचरिते ___टोका-अतिशयेन शालीना लज्जाशीला इति शालीनतमा सा दमयन्ती मदनेन कामेन उन्मविष्णुः उन्मत्ता सती अलीकम् मिथ्या यथा स्यात्तथा दृष्टे (सुप्सुपेति स.) भ्रान्त्या दृष्टे, भ्रमात्मके इत्यर्थः नले यथा येन प्रकारेण मोनम् तूष्णींभावम् न आप न गृहीतवती, तेन वार्तालापमकरोदिति भावः तथा एव तेनैव प्रकारेण तथ्ये सत्ये अपि नले मौनम् न लेभे प्राप अर्थात् तेन सह समपलपत् / मुग्धेषु मोहं प्राप्तेषु, मदनोन्मत्तेषु जनेषु इति यावत् सत्यं च मृषा असत्यं च ( द्वन्द्व ) तयोः विवेकः विवेचनम् कः न कोऽपीति काकुः / कामार्तेषु सत्यासत्यविवेको न भवतीति भावः // 18 / / व्याकरण-शालीना शालायां ( गृहे ) प्रवेशमहतीति शाला + ख, ख को ईन ( 'शालीन-कौपीने अधृष्टकार्ययोः ( 5 / 2 / 20 ) / उन्मविष्णुः उन्माद्यतीति उत् +/मद् + इष्णूच ( करि)। मौनम् मुनेः भाव इति मुनि + अण / आप आप + लिट् / तथ्य तथा + यत् / मुग्धेषु /मुह् + क्त ( कर्तरि ) / __ अनुवाद-लज्जाशील वह ( दमयन्ती ) कामोन्मत्त हुई जिस तरह (भ्रमवश ) भूठमूठ देखे हुए नल के आगे चुप नहीं रहती थी, वैसे ही वह सचमुच के नल के आगे भी चुप नहीं रही। कामोन्मत्त लोगों को सत्य और झूठ का विवेक कहाँ ? // 18 // टिप्पणी-कामोन्माद में दमयन्ती भ्रमवश कितनी ही बार नल को यत्रतत्र सामने खड़ा देखती तो उनसे घुल-धुलकर बातें करती। सचमुच दूत रूप में सामने आये हुए उनके आगे भी वह क्यों मौन अपनाती? कामार्तों को भला लज्जा और विवेक से क्या काम ? कालिदास ने भी ऐसा-जैसा ही भाव व्यक्त किया है ....'कामार्ता हि प्रकृति-कृपणाश्चेतनाचेतनेषु' / यहाँ पहले के तीन पादों में अभिहित विशेष बात का चौथे पाद में अभिहित सामान्य बात द्वारा समर्थन किये जाने से अर्थान्तरन्यास है / 'मद' 'मदि' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। व्यर्थीभवद्भावपिधानयत्ना स्वरेण सार्थ श्लथगद्गदेन / सखीचये साध्वसबद्धवाचि स्वयं तमूचे नमदाननेन्दुः // 19 // अन्वयः--अथ व्यर्थी.. यत्ता सा सखीचये साध्वस-बद्ध-वाचि (सति) नमदाननेन्दुः ( सती ) श्लथ-गद्गदेन स्वरेण स्वयम् तम् ऊचे / टीका-अथ तदनन्तरम् अव्यर्थः व्यर्थः सम्पद्यमानो भवतीति व्यर्थीभवन्