________________ 254 नैषधीयचरिते यन्ती द्रष्टुमपि यावत् नालभत, तावदेव दमयन्ती कामाभिहता बभूवेति भावः // 3 // व्याकरण-भैमीम् भीमस्यापत्यं स्त्रीति भीम + अण् + ङीप् / अपाङ्गम् अप = तिर्यक् अङ्गति ( गच्छति ) इति अप + /अङ्ग + अच् ( कर्तरि ) आप Wआप + लिट / आशुग: आशु ( शीघ्रम् ) गच्छतीति आशु + गम् + ड / अनुवाद-नल के आँखों की किरण दमयन्ती को लक्ष्य करके कनखी तक भी नहीं पहुँच पायी थी कि तभी काम का बाण नोक से लेकर पुंख वाले भाग तक ( = सारे का सारा ) इस सुन्दरी ( दमयन्ती) के अंग-अंग में घुस गया // 3 // टिप्पणी-नल की दृष्टि दमयन्ती की ओर जाना चाह ही रही थी कि इतने मात्र से काम ने दमयन्ती को धर दबाया। वास्तव में दमयन्ती के भीतर कामोद्रेक तब हुआ, जब उस पर नल की दृष्टि पड़ी, किन्तु यहाँ कवि ने कामोद्रक-रूप कार्य पहले बता दिया और कारणरूप दृष्टिपात पीछे इसलिए यहाँ कार्यकारण पौर्वापर्य-विपर्यय-रूप अतिशयोक्ति है / 'लस्य' 'लष्य' में ( सषयोरभेदात् ) श्लेष और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। दृशो रश्मिा–यहाँ कवि आँखों की रश्मियों के सम्बन्ध में न्यायशास्त्र की ओर संकेत कर रहा है। न्याय के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष से ही हुआ करता है किन्तु आँख के सम्बन्ध में हम देखते हैं कि वह बिना सन्निकर्ष अर्थात् संयोग के दूर से ही पदार्थ का ग्रहण कर लेती हैं, इससे अनुमान किया जाता है कि आँख की रश्मियाँ होती हैं जिनके द्वारा आँख और पदार्थ का सम्बन्ध होता है। मनुष्यों की आँखों की रश्मियाँ दीपक की रश्मियों की तरह देखने में नहीं आती हैं यद्यपि बिल्ली आदि की आँखों की रश्मि रात को दीख जाती हैं। ब्रह्मा का कुछ ऐसा ही विधान है। अधिक के लिए न्यायदर्शन देखिये। यदक्रम विक्रमशक्तिसाम्यादूपाचरद्वावपि पञ्चबाणः / कथं न वैमत्यममुष्य चक्रे शरैरनर्धार्धविभागभाग्भिः // 4 // अन्वयः-पञ्चबाणः द्वौ अपि अक्रमम् विक्रमशक्तिसाम्यात् यत् उपाचरत्, तत् अमुष्य अनर्ध"भिः वैमत्यम् कथम् न चक्रे ? टोका-पञ्च बाणाः यस्य तथाभूतः (ब० बी० ) कामदेवः द्वौ नलदमयन्त्यो