________________ अष्टमः सर्गः टीका-सा दमयन्ती दशा दृष्टया आलिङ्गितम् सन्निकृष्टमित्यर्थः अपि अस्य नलस्य अङ्गम् अपरम् अन्नम् अग्रे प्रथमम् अवगतम् ज्ञातम् ( स० तत्पु० ) यत् अङ्गम् अवयवः ( कर्मधा० ) तेन हर्षेः तज्जनितैः आनन्दैः इत्यर्थः ( तृ० तत्पु०) न जग्राह गृहीतवती, पूर्वगृहीताङ्गेन तस्यामीदृशो विपुल आनन्दः जनितः येन अङ्गान्तरं चक्षुषा सन्निकृष्यमाणमपि सा न ददर्शेत्यर्थः / अनन्तरम् जाते निमेषे अन्यत् अङ्गम् इत्यङ्गान्तरम् तस्मिन् वीक्षिते दृष्टे तु निवृत्य परावृत्य पूर्वम् प्रथम दृष्ठम् विलोकितम् अङ्गम् न सस्मार न स्मृतवती पूर्वदृष्टाङ्गापेक्षया दृश्यमानाङ्गान्तरस्य सुन्दरतरत्वात्, अत एव तज्जनितानन्दे मग्नत्वात् // 10 // व्याकरण-अङ्गान्तरे अस्वपदविग्रही कर्मधारय 'मयूरव्यंसकादयश्च' ( 2 / 1 / 72 ) से निपाति / __अनुवाद-वह ( दमयन्ती ) आँखों का सन्निकर्ष रखे हुए भी इस (नल) के दूसरे अङ्ग का पहले देखे हुए अंग से उत्पन्न आनन्द के कारण ग्रहण नहीं कर पा रही थी, किन्तु बाद को दूसरा अङ्ग देखने पर ( फिर ) मुड़कर उसे पूर्वदृष्ट अङ्ग को याद ही नहीं रहती // 10 // . टिप्पणी-इस श्लोक में प्रायः पिछले श्लोक की बात ही कवि ने दोहरायी है। विशेषता यह है कि आँखों का दूसरे अंग से सन्निकर्ष होने पर भी उसके न ग्रहण करने से यहाँ यह दार्शनिक तथ्य बताया गया है कि केवल इन्द्रिय-सन्निकर्ष से ही प्रत्यक्ष नहीं हुआ करता है, बल्कि इन्द्रिय के साथ मनसन्निकर्ष भी अपेक्षित है। मन देखो तो मयन्ती का प्रथम दृष्ट अंग से होने वाले आनन्द में मग्न हुआ बैठा है, फिर के चक्षुसन्निकर्षं क्या करे / यह तो बही बात हुई जैसे वेदान्त में कहा जाता है 'अन्यमना अभूवम्, नापश्यम्' / यहाँ विद्याघर के अनुसार 'अत्राङ्गस्य दृगालिंगने कारणे सत्यपि तद्ग्रहणकार्य नोक्तम् / तत्र च प्रथममवलोकितावयवो हेतुरुक्तः, तेनोक्तनिमित्तविशेषोक्तिरतिशयोक्तिश्च' / 'अङ्गान्तरेऽनन्तर' में टेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / हित्वैकमस्यापघनं विशन्ती तद्दृष्टिरङ्गान्तरभुक्तिसीमाम् / चिरं चकारोभयलाभलोभात्स्वभावलोला गतमागतं च // 11 // अन्वयः-स्वभाव-लोला तद्-दृष्टिः अस्य एकम् अपघनम् हित्वा अङ्गान्तरमुक्ति-सीमाम् विशन्ती उभयलाभ-लोभात् चिरम् गतम् आगतम् च चकार /