________________ 252 नैषधीयचरिते आंखों के भीतर इस युवा ( नल ) को पी गई; जिसकी आँखें अचम्भे में फटी'फटी रह रही थी और जो ( आनन्द में ) रोमाञ्चित हो उठा था // 1 // टिप्पणी-नल तो दमयन्ती के रूप में सौन्दर्य की पराकाष्ठा को पहले से ही देख रहे थे। पिछले सर्ग की समाप्ति के श्लोक 109 में वे इसे देख "चित्राम्बुधि' में मग्न हो ही गये थे। अतः नारायण का सुझाव है कि अद्भुतेनास्तनिमेषमुद्रम्' को नल का विशेषण न बनाकर 'दृशा पपुः' के क्रियाविशेषण रूप में हम लें, तो अच्छा रहे क्योंकि नल का पहला-पहला साक्षात्कार तो सखी-सहित दमयन्ती को हो रहा है। वही उनकी लोकातिशायी सुन्दरता देख एकदम भौंचक्की रह रही है। सुझाव ठीक ही है, किन्तु ऐसी स्थिति में क्रिया और क्रियाविशेषण के मध्य 'आसत्ति' का अभाव अखरने लग जायेगा। श्लोक में नल को रोमाञ्च हुआ दिखाने से विद्याधर ने भावोदयालङ्कार कहा है, लेकिन हमारे विचार से व्यभिचारी भावों का उदय ही अलंकार-प्रयोजक होता है, सात्विक भावों का उदय नहीं। वे तो अनुभाव-रूप ही होते हैं। विद्याधर छेक भी कह रहे हैं / इस सर्ग में छन्द पूर्व सर्ग वाला ही चल रहा है / कियच्चिरं देवतभाषितानि निह्नोतुमेनं प्रभवन्तु नाम / पलालजालैः पिहितः स्वयं हि प्रकाशमासादयतीक्षुडिम्भः // 2 // अन्वयः-दैवतभाषितानि कियच्चिरम् एनम् निह्नोतुम् प्रभवन्तु नाम ? हि पलाल-जालैः पिहितः इक्षु-डिम्भः स्वयं प्रकाशम् आसादयति / टीका --देवतानि देवता-सम्बन्धीनि च तानि भाषितानि वचनानि (कर्मधा०) कियच्चिरम् कियन्तम् बहुकालम् एनम् एतम् नलम् निह्नोतुम् गोपायितुम् प्रभवन्तु शक्नुवन्तुनामेति कोमलामन्त्रणे? न बहकालमिति काकुः / इन्द्रेण नलाय यथेच्छमदृश्यीभवनस्य यद्वचनं दत्तम्, तत्किञ्चित्कालाय एवासीत् न तु बहुकालायेति भावः / हि यतः पलालस्य निष्फल-व्रीह्यादिघासस्य ( 'पलालोऽस्त्री सनिष्फलः' इत्यमरः) जालैः समूहैः (१०तत्पु०) पिहितः आच्छादितः इक्षोः रसालस्य डिम्भ: प्ररोहः (ष०तत्पु०) 'डिम्भौ तु शिशु-बालिशो' इत्यमरः / स्वयम् आत्मना प्रकाशम् प्रकटताम् आसादयति प्राति, इक्षोरङ्कुरः प्रारम्भावस्थायां रक्षार्थ घासादिना आच्छाद्यते किन्तु उत्तरोत्तरं प्रवर्धमानोऽसौ स्वयमेव सर्वजनप्रत्यक्षतां यातीति भावः // 2 //