________________ सप्तमः सर्गः 249 तस्मिन् ( कर्मधा० ) तरत् प्लवमानम् अन्तरं मनः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूत: ( ब० वी० ) तस्याः लोकातिशायिसौन्दर्यमवेक्ष्य चकित चकितः इत्यर्थः तथा हृदयस्य हृदः भरणेन पूरणेन ( 10 तत्पु०) उद्वेलः ( तृ० तत्पु० ) उत् = उल्लङ्घिता वेला तीर-सीमा येन तथाभूतः ( ब० वी० ) निस्सीमः यः आनन्दः हर्षः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) आनन्दसमुद्रमग्नः इत्यर्थः सन् सखीभिः आलिभिः वृता परिगता ( त० तत्पु०) या भीमजा भैमी ( कर्मधा० ) तस्याः नयनयोः नेत्रयोः (10 तत्पु० ) विषयीभावे गोचरत्वे (10 तत्पु० ) भावम् विचारम् दधार बभार। दमयन्त्या अलौकिकसौन्दर्येण साश्चर्यः आनन्दा. ब्धिमग्नहृदयश्च प्रच्छन्नो राजा नलः सखीपरिगतां ताम् प्रति आत्मानम् प्रकटयितुमैच्छदिति भावः / / 109 / व्याकरण-मधिपः अधिकं पातीति अधि + /पा + क / धरा धरति (प्राणिजातम् ) इति/धृ + अच् + टाप् / अम्बुधौ अम्बूनि धीयन्तेऽत्रेति अम्बु + धा + कि / विषयीभावे विषय + च्वि, ईत्व /भू + घन / ___अनुवाद-इस प्रकार मृगनयनी इस ( दमयन्ती ) का केश से लेकर नख तक वर्णन करता हुआ वह राजा नल, जिसका मन आश्चर्य-सागर में तैर रहा था तथा आनन्द भरकर हृदय से बाहर छलक रहा था, मन में विचार कर बैठा कि ( अब ) मुझे सखियों से घिरी हुई दमयन्ती की आँखों के आगे अपने को प्रकट कर देना चाहिए // 109 // टिप्पणो-इस सारे सर्ग में कवि नल को माध्यम बनाकर नख-शिख पर्यन्त दमयन्ती का चित्रण कर गया है। जैसा हम भूमिका में बता आये हैं, कलावादी सरणि के कवियों की यह अपनी विशेषता है कि वे समय-असमय एवं औचित्यअनौचित्य न देखकर जब किसी का वर्णन करने लगते हैं, तो पूरी सूची भुगताये बिना चैन नहीं लेते / यही काम श्रीहर्ष ने भी किया है। यही अलंकृत-शैली की अस्वाभाविकता एवं कृषिमता है / 'हरिणरमणीनेत्राम् ' में उपमा और चित्राम्बुधि में रूपक है। 'भावे' 'भावं' 'धार' 'धरा' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / सन्ति में छन्द-परिवर्तन के नियमानुसार कवि ने यहाँ हरिणी छन्द का प्रयोग किया है, जिसका लक्षण यह है-'न-स-म-र-स-ला-गः षड्वेदैहयैर्हरिणी मता' अर्थात् इसमें नगण, सगण, लगण, रगण और अन्त में लघु-गुरु और छठे, चौथे एव सातवें अक्षर पर यति होती है /