________________ सप्तमः सर्गः 181 व्याकरण-०मुखीभूय मुख + भू + च्चि, ईत्व + /भू + ल्यप् / भयम् भी + अच् ( भावे ) / व्ययः वि + /इ + अच् ( भावे ) / वधार/धु + लिट् / ___ अनुवाद-यह चन्द्रमा प्रियतमा का मुख बनकर राहु का डर चले जाने से सुखो हो मौज कर रहा है। उसी ( चन्द्रमा ) का किरण-समूह यह (सामने) बिम्ब-जैसे अधर की लीला अपना बैठा है // 52 // टिप्पणी-यहाँ से कवि नौ श्लोकों तक दमयन्ती के मुख का चित्रण कर रहा है। मुख पर पहली कल्पना तो उसकी यह है कि मानो आकाश को छोड़कर चन्द्रमा दमयन्ती का मुख बन गया हो जिससे कि उसे सदा के लिए राहु का डर न रहे। दूसरी कल्पना यह है कि उसी चन्द्रमा की उदय-कालीन लाललाल किरणें इकट्ठी हो दमयन्ती का अधर बन गई हों। परस्पर निरपेक्ष होने से यहाँ दो गम्य उत्प्रेक्षाओं की संसृष्टि है। विद्याधर ने अतिशयोक्ति और व्यतिरेक माना है। आरोप-बिषय मुख 'अयम्' और अधर 'इमाम्' शब्दों से अनिगीण-स्वरूप होने के कारण भेदे अभेदातिशयोक्ति के लिए तो स्थान नहीं है। हाँ रूपक माना जा सकता है / यदि विद्याधर का अभिप्राय मुख से चन्द्रमा का और अधर से किरणों का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताना हो, तो बात दूसरी है। शन्दालंकारों में से 'मुखी' 'सुखी' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'धारा 'धर' में छेक, 'वालं' 'वालं' में यमक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। अस्या मुखस्यास्तु न पूर्णमास्यं पूर्णस्य जित्वा महिमा हिमांशुम् / भ्रलक्ष्म खण्डं दधदर्धमिन्दुर्भालस्तृतीयः खलु यस्य भागः // 53 // अन्वयः- पूर्णमास्यम् हिमांशुम् जित्वा अस्याः पूर्णस्य मुखस्य महिमा न अस्तु / यस्य तृतीयः भागः भालः खलु भ्रलक्ष्म दधत् अर्धम् खण्डम् इन्दुः ( अस्ति ) / टीका-पूर्णमा पूर्णिमा ( 'पूर्णमा पौर्णमासी च' इति केशवः ) आस्यम् मुखम् आरम्भ इति यावत् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० वी० ) यस्या उदये पूर्णिमास्ति अथवा पूर्णमास्यां साधुः पूर्णमास्यम् पूर्णमातिथिजातम् सकलकलासम्पूर्णमित्यर्थः हिमाः शीताः अंशवो रश्मयो यस्य तथाभूतम् ( ब० बी० ) चन्द्रमित्यर्थः जित्वा पराभूय पूर्णस्य समग्रस्य मखम्य आननस्य महिमा माहात्म्यम् श्रेष्ठत्वम् न अस्तु ? अपि तु अस्तु एवेति काकुः यस्य मुखस्य तृतीय: