________________ 188 नैषधीयचरिते दीप्तिचक्रमिति यावत् पाशः बन्धनरज्जुः ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) (कृतः) स्यात् भवेत् / मुखपराजितः चन्द्र बद्ध इव स्यादितिभावः ! व्याकरण-रोषः /रुष + घन् / भासा भास् + क्विप् (भावे ) तृ० / ०स्पर्धी सर्घ + णिच ( ताच्छील्ये ) / प्रसह्य प्र+/सह + ल्यप् अव्यय-रूप में प्रयुक्त होने लगा है। नह्यमान नह + शानच् ( कमवाच्य ) / परिवेषः परि + V विष् + घन्। ___अनुवाद-( उबटन हेतु ) लगाई हुई केशर के रूप में क्रोध की ( लाल ) कान्ति रखे मुख द्वारा ही बराबर ईर्ष्या करने वाला चन्द्र परास्त करके सचमुच जबरन बाँधा जाता हुआ ही परिवेष के रूप में बन्धन में डाला पड़ा हो।॥ 58 // टिप्पणी-चन्द्रमा के इर्द-गिर्द कभी-कभी परिवेष-गोल-गोल प्रकाश-चक्र देखने में आता है, जो एक प्राकृतिक दृश्य होता है। उसपर कवि कल्पना यह है कि मानो चन्द्र को दमयन्ती के मुख ने रस्सी से बाँध रखा हो, क्योंकि चन्द्र शोभा में दमयन्ती के मुख से होड़ कर रहा था। सौन्दर्य प्रतियोगिता में मुख ने उसे बुरी तरह पछाड़ दिया, और परिवेष-रूपी रस्से से बाँध दिया। परास्त हुए व्यक्ति को सर्वत्र बाँध दिया जाता ही है / खलु शब्द को उत्प्रेक्षा-वाचक मानें तो उत्प्रेक्षा है. जिसके साथ कुंकुम पर रोषकान्तित्वारोप और परिवेष पर पाशत्वारोप से रूपक तया मूख और चन्द्रमा के चेतनीकरण से समासोक्ति का संकर है। 'जित्य' 'नित्य' 'सह्य, 'नह्य' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विधोविधिबिम्बशतानि लोपं लोपं कुहरात्रिषु मासि मासि / अभङ्गुरश्रीकममुं किमस्या मुखेन्दुमस्थापयदेकशेषम् // 59 / / अन्वयः-विधिः मासि-मासि कुहू-रात्रिषु विधोः बिम्ब-शतानि लोपं लोपम् अभङ्गुरश्रीकम् अमुम् अस्याः मुखेन्दुम् एकशेषम् अख्थापयत् किम् ? टीका-विधिः ब्रह्मा मासि मासि मासे मासे प्रतिमासमित्यर्थः कुहूः नष्टेन्दुकला अमावास्येति यावत् ( 'नष्टेन्दुकला कुहूः' इत्यमरः) तस्या रात्रिषु निशासु विधोः चन्द्रस्य बिम्बानाम् मण्डलानाम् शतानि शतसंख्या शतशो बिम्बानीत्यर्थः लोपं लोपम् लुप्त्वा लुप्त्वा न भगुरा भङ्गशीला ( नञ् तत्पु० ) श्री: शोभा