________________ सप्तमः सर्गः 235 टीका-अस्याः दमयन्त्याः जङ्घयोः इत्यधिजङ्घम् ( अव्ययी० ) क्रमेण आनुपूर्व्या उद्गता उपरिगता ( तृ० तत्पु० ) पोषरता पीनता वृक्षस्य तरो? अधिरूढम् आरोहं, वृद्धि-प्रकारमित्यर्थः अथ च आलिंगनविशेषम् विदुषी ज्ञात्री किम् ? अर्थात् यथा वृक्षः क्रमशो वर्धमानः उपरि पीनत्वं गच्छति, तथा जङ्घापीत्यर्थः भ्रम्याः भ्रमणस्य भङ्गिभिः प्रकारैः ( 10 तत्पु० ) भ्रमणाकारवेष्टनविशेषरिति यावत् आवृतम् आच्छादितम् अङ्गम् गात्रम् येन तथाभूतम् ( ब० वी० ) वास: वस्त्रम् अपि लतायाः बल्ल्याः वेष्टितकम् वेष्टनम् (10 तत्पु० ) अथ च आलिङ्गनविशेषः तस्मिन् प्रवीणम् निपुणम् किम् ? यथा लता भ्रमीभङ्गिभिः वृक्ष वेष्टयति तथैव वासोऽपि अस्या: अङ्ग वेष्टयतीत्यर्थः / / 97 // व्याकरण-अधिरूढम् अधि + /हह + क्त (नावे ) / विदुषो वेत्तीति / विद् + शतृ, शत को वसु आदेश + डीप ( 'न लोकाव्यय०' 2 / 3 / 69 ) से षष्ठी ( निषेध ) / भ्रमी /भ्रम् + इन् + ङीप् / भङ्गिः /भञ्ज + इन्, कुस्ख / वासः Vवस् आच्छादने + अस् , णिश्च / वेष्टितकम् /वेष्ट + क्तः (भावे ) + कः ( स्वार्थे ) / प्रवीणम् प्रकृष्टो वीणायामिति ( प्रादि स० ) लक्षणा से निपुणार्थ में प्रयुक्त। अनुवाद -इस ( दमयन्ती) की पिंडली में क्रमशः ऊपर गई हुई पीनता वृक्षाधिरूढ ( वृक्ष-वृद्धि; आलिंगन-विशेष ) को जानती है क्या ? घुमाव के प्रकारों से ( इसके ) गात्र को आवृत किए वस्त्र भी लता-वेष्टितक ( लता द्वारा वृक्ष का घेराव, आलिंगन-विशेष ) में प्रवीण हैं क्या ? // 97 // टिप्पणी-अब कवि दो श्लोकों में दमयन्ती की जंघाओं, पिंडलियों, का वर्णन कर रहा है। पिंडली वृक्ष की तरह ऊपर जाती हुई पीवर स्थूल बनती जाती है। वृक्षारूढ़ शब्द में कवि ने श्लेष रखकर पीनता के सम्बन्ध में यह संकेत किया है कि वह वृक्षारूढ़-नामक आलिंगन जानती है। वृक्षारूढ़ आलिंगन का लक्षण यह है-'बाहुभ्यां कण्ठमालिङ्गय कामिनी कान्त उत्थिते / अङ्कमारोहते यस्य वृक्षारूढः स उच्यते' इसी तरह लतावेष्टितक भी आलिंगन का एक प्रकार है, जिसका लक्षण यह है-'उपविष्टं प्रियं कान्ता सुप्ता वेष्टयते यदि / तल्लतावेष्टितं ज्ञेयं कामानुभववेदिभिः // यहाँ किम् शब्द-वाच्य दो उत्प्रेक्षायें हैं, जो श्लेषगभित है। पीवरता में चेतनीकरण होने से समासोक्ति है / शब्दालंकार वृल्यनुप्रास है।