________________ 238 नैषधीयचरिते टिप्पणी-अब कवि छः श्लोकों में दमयन्ती के पर वर्णन करता है / यहाँ वह निरुक्त शास्त्र के अनुसार पल्लव शब्द की व्युत्पत्ति कर रहा है, यथा“पल्लव: कस्मात् ? ( दमयन्त्या : ) पल्लवग्रहणात्' अर्थात् इसमें पंद = पैर का लवमात्र है / भाव यह निकला कि दमयन्ती के पैर नव किसलय से भी अधिक सुन्दर भृदु और लाल है। यह कवि की कल्पना है कि पल्लव उसके पर का लवमात्र है, अतः उत्प्रेक्षा है, किन्तु विद्याधर अतिशयोक्ति भी कह रहे हैं। व्यतिरेक चल ही रहा है / 'मही' 'महे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। जगद्वधूमूर्धसु रूपदर्पाद्यदेतयादायि पदारविन्दम् / तत्सान्द्रसिन्दूरपरागरागैध्रुवं प्रवालप्रबलारुण तत् / / 100 // अन्वयः–एतया रूप-दात् जगद्वधूमूर्धसु पदारविन्दम् यत् भदायि तत् द्वयम् तत्-सान्द्र "रागें: प्रवालप्रबलारुणम् जातम् / टोका-एतया अनया दमयन्त्या रूपस्य सौन्दर्यस्य र्पात् गर्वात् ( 10 तत्पु० ) जगताम् त्रिभुवनानाम् याः वम्वः सुन्दरस्त्रियः (10 तत्पु० ) तासाम् मूर्षसु शिरस्सु (10 तत्पु०) पदः पादः अरविन्दम् कमलम् इव ( उपमित तत्पु० ) यत् यस्मात् अदायि न्यधायि, तत् तस्मात् द्वयम् एतस्याः पदयुगलम् तेषु तासां मूर्धसु सान्द्रम् निबिडम् ( स० तत्पु०) यत् सिन्दूरम् नागसंभवम् ( कर्मधा० ) तस्य यः परागः धूलिः तस्य रागैः लौहित्यः ( उभयंत्र ष० तत्पु.) प्रबालात् पल्क वात् अथवा विद्रुमात् प्रवलम् अधिकम् (पं० तत्पु० ) अरुणम् लोहितम् जातमिति शेषः / दमयन्त्याः पादौ लोकातिशायि-सौन्दर्यात् जगत्सुन्दरीमूर्धसु स्थापितो, तन्मूर्धसिन्दूररजसा लोहितौ च सन्तौ प्रवालापेक्षयाप्यधिकारुणी जाताविति भावः // 100 // ब्याकरण-वधूः उह्यते ( नीयते ) पितुः गृहात् पतिगृहमिति Vवह् + ऊधुक् / अदायि / दा + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / राग: र + घम् ( भावे ) / द्वयम् द्वौ अवयवो अत्रेति द्वि + तयप् , तयप् को अयच् / ___अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) ने सौन्दर्य-गर्व में जगत् की वधुओं के सिर पर चरण-कमल जो रखे उसी से ये दोनों उनके सिरों पर स्थित, घनी सिन्दूर रज की लाली से नव किसलय से भी अधिक लाल हो बैठे हैं // 10 //