________________ सप्तमः सर्गः 239 टिप्पणी-दमयन्ती के कमलों-जैसे चरण नवपल्लवों से अधिक लाल हैं। इस पर कवि-कल्पना यह है कि मानो अपने सोन्दर्याभिमान में उसने जगत की सुन्दरियों के सिरों पर चरण धर दिये, जिनकी मांगें सिन्दूर से भरी हुई थीं। उनपर दमयन्ती के चरण पड़े तो उन पर सिन्दूर की रज लग गई और वे बहुत लाल हो गये। कल्पना में उत्प्रेक्षा है। विद्याधर सुन्दरियों के सिरों पर पैर रखने का सम्बन्ध न रखने पर भी सम्बन्ध बताने में असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति भी कह रहे हैं / 'रागरागै:' तथा 'वाल-बला' में छेकानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। रुषारुणा सर्वगुणयन्त्या भैम्याः पदं श्रीः स्म विधेर्वृणीते / ध्रुवं स तामच्छलयद्यतः सा भूशारुणतत्वदभाग्विभाति // 101 / / अन्वय:-श्री: रुषा अरुणा ( सती ) सर्वगुणः जयन्त्याः भैम्याः पदम् विधेः वृणीते स्म / स धूवम् ताम् अच्छलयत् / यतः भृशारुणा सा एतत्पदभाक् विभाति / टीका-श्री: लक्ष्मी देवी अथ च शोभा रुषा क्रोधेन अरुणा रक्तवर्णा सती सर्वे च ते गुणाः स्युचितधाः तै: ( कमंधा० ) जयन्त्याः श्रियम् पराभवन्त्याः भैम्या: दमयन्त्याः पदम् स्थानम् विधेः ब्रह्मणः सकाशात् वृणीते स्म अवृणुत / भम्या सर्वगुणः श्रीः जिता, अतः क्रोधेन रक्तवर्णा भवन्ती सा ब्रह्माणं वरमया. चत-भैम्याः पदे ( स्थाने, अधिकारे ) अहं स्थापनीयेति भावः / स विधिः ध्रुवम् निश्चितम् ताम् श्रियम् देवीम् अच्छलयत् प्रातारयत् थतः यस्मात् भृशम् यथा स्यात् तथा अरुणा रक्ता ( सुप्सुपेति समासः ) एतस्याः भैम्याः पदं चरणं (10 तत्पु० ) भजतीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) विभाति शोभते / ब्रह्मणा श्रियै यथभिलापितम् भैम्याः पदम् दत्तम् परन्तु तत्पदम् स्थानं न अपि तु चरण: इति सा छलितेति भावः / ___ व्याकरण-रुषा /रुष् + क्विप् ( भावे ) तृ० / जयन्त्याः /जि + शतृ + ङीप् प० / 0 भा /भज + क्विप् ( कर्तरि ) / अनुवाद-क्रोध से लाल बनी लक्ष्मी-सौन्दर्य की देवी, सभी गुणों द्वारा ( उसे ) जीत लेने वाली दमयन्ती का पदस्थान वर रूप में ब्रह्मा से मांग बैठी। ब्रह्मा ने सचमुच उसे ठग लिया, क्योंकि अत्यधिक लाल बनी वह ( लक्ष्मी)