________________ 242 नैषधीयचरिते तत्पु० ) कर्णः श्रोत्रम् च अक्षि नयनं च दन्तच्छदः ओष्टश्च बाहः भुजश्चः पाणिः हस्तश्च पादः चरणश्चैतेषां समाहारः पादम् ( समाहारद०) आदी यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) आदिशब्देनात्र कुचादेः ग्रहणम्, न द्वयम् अद्वयम् ( नन् तत्पु० ) तस्य भावः तत्ता अद्वतम् तस्याः अभिमानात् गर्वात् प्रत्येकमङ्गम् 'अहमेवकं सुन्दरमस्मि, मत्तुल्यं द्वितीयम् जगति अन्यत् नास्तीत्यभिमानं चकारेति भावः अतएव उद्वेगः अभिमानजनितः क्रोधः तं भजतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) वेषाः ब्रह्मा इह अस्याम् दमयन्त्याम् एव द्वितीयम् द्वयोः पूरणम् कर्णादि ब्यधित रचितवान् / निर्माणसमये वेधाः दमयन्त्याः प्रथमम् एक. नास्तीति तदभिमानभञ्जनार्थ वेधाः तत्सदृशं द्वितीयं कर्णादि अरचयदिति भावः // 103 // __व्याकरण-जेतुः भाषितपुंस्क होने से पुंल्लिग / अक्षि अश्नुते ( विषयान् ) इति/अश् + क्सिः / दन्तच्छवः छदतीति / छद् + अच् ( कर्तरि ) छदः दन्तानां बाहा यास्कानुसार 'बाधते इति सतः' अर्थात् बाधते इति/बाध् + उ,ध को ह ( कामों में दखल देने वाला) / द्वितोयम् द्वयोः पूरणमिति द्वि + तीय / व्यधित वि + /धा + लुङ् ( कर्तरि ) / अनुवाद-अपने सदृश सभी ( वस्तुओं ) के विजेता कान, आँख, ओठ, भुजा, हाथ और पैर आदि को अपने भीतर अद्वितीय होने के अभिमान के कारण कुपित हुआ विधाता इस (दमयन्ती) में ही दूसरा ( कर्णादि ) रच बैठा // 103 / / टिप्पणो-ब्रह्मा जब दमयन्ती का सृजन कर रहा था तो पहले उसने उसका एक-एक ऐसे कान-आँख आदि बनाये, जो सुन्दरता में अद्वितीय थे। बस उन्हें अपनी अद्वितीयता का गर्व हो बैठा। उनके अभिमान से ब्रह्मा कुपित हो गये और उनके मान-मर्दन हेतु उनका प्रतिद्वन्द्वी दूसरा कान आदि रच दिया। वे अब अद्वितीय नहीं रहे। उसका कान उसके कान की तरह हो गया। इसी तरह आँख की तरह आँख इत्यादि भी समझ लीजिये / विद्याधर ने अनन्वयोपमा कही है / हमारे विचार से ह कवि की कल्पना है, जो प्रतीयमान उत्प्रेक्षा की प्रयोजिका है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। .. तुषारनिःशेषितमज्बसर्ग विधातुकापस्य पुनर्विधातु / पञ्च स्विहास्याङ्क्किरेष्वभिख्याभिक्षाधुना माधुकरीसदृक्षा // 104 //