________________ 234 नैषधीयचरिते . व्याकरण-मोहम् मुह + घम् ( भावे ) ०शीली शील् + णिन् / ' ०आह्लादि आ + Vलाद् + णिच् + णिन् अथवा आह्लादोऽस्यामस्तीति आह्लाद + इन् ( मतुबर्थ ) / ज्या : वि + /अस् + घञ् ( भावे ) / . अनुवाद -इस ( दमयन्ती ) पर मुनियों तक को भी मोह हो उठा है / ऐसा मेरा तकं है, क्योंकि इसके कुचरूप शैल में रह रहे भृगु ( ढलवां चट्टान ) के रूप में भृगु ( ऋषि विशेष ) इसके कुचशैलों का आश्रय लिए हुए हैं; नाना ( अनेक ) रदों ( दाँतों) से प्रसन्न कर देने वाला इसका मुख नारद ( देवर्षिविशेष ) को प्रसन्न न करने वाला न हो सो बात नहीं; इसकी जाँघों में रहने वाला, महाभा ( अति उद्दीप्त ) रत-( सुरत) क्रिया-योग्य व्यास (विस्तार ) के रूप में महाभारत (ग्रन्थविशेष ) की रचना करने में सक्षम व्यास ( मुनिविशेष ) इसकी जाँघों का आश्रय लिये हुए हैं / / 96 / / टिप्पणी---इस श्लोक में कवि ने श्लेष का बड़ा चमत्कार भर रखा है। उन्नत होने के कारण कुचों पर शैलत्वारोप होने से भृगु अतट अर्थात् ढलवाँ चट्टान; जिसे पहाड़ी भाषा में 'ढंगार' कहते हैं, का वहाँ होना स्वाभाविक है। भृगु एक ऋषि का भी नाम है जो इसके कुचों को देख काम-पोड़ित होने से उनका मर्दन करना चाहते हैं। सुन्दर नाना दाँतों से चमक रहे मुख पर नारद मुग्ध हैं अर्थात् गायन विद्या के अभ्यास हेतु इसके मुख की सेवा करते हैं साथ ही चुम्बनाभिलाष भी रखते हैं। व्यास व्यास वाले इसकी जांघों पर लट्टू हैं। कवि को यहाँ दोनों अर्थ विवक्षित हैं, जो वाच्य और प्रकृत हैं। इसलिए यहाँ प्रकृति-श्लेष है जो कहीं अभंग और कहीं सभंग है / 'कुचशैल' पर आरोप होने से रूपक है। अनुवाद की कठिनाई देखते हुए हमें रूक रूप में ही दोनों अर्थों को स्पष्ट करना पड़ा है। 'मुनीनामपि' में अपि शब्द से 'औरों का तो कहना ही क्या' इस अर्थान्तर के आपात से अर्थापत्ति है। कवि-कल्पना में उत्प्रेक्षा है जो गम्य है। क्रमोद्गता पीवरतादिजङ्घ वृक्षाधिरूढं विदुषी किमस्याः / अपि भ्रमोभङ्गिभिरावृताङ्गं वासो लतावेष्टितकप्रवीणम् / / 97 / / . अन्वयः-अस्याः अधिजङ्घम् क्रमोद्गता पीवरता वृक्षाधिरूढम् विदुषी किम् ? भ्रमी-भङ्गिभिः आवृताङ्गम् वासः अपि लता-वेष्टितक प्रवीणम् (किम् ?)