________________ 232 नैषधीयचरिते सचेतन है। उसे जांघ की समानता प्राप्त करनी है, तो साधुओं की तरह सिर नीचे और पाँव ऊपर करके तप करना होगा अर्थात् अपनी स्थिति उलटनी होगी, ससार बनकर जड़ता छोड़नी पड़ेगी। तब जाकर वह उसकी बराबरी प्राप्त करे, तो करे। भाव यह निकला कि दमयन्ती की जाँघे अनुपम हैं। विद्याधर यहाँ उपमा का एक नया ही भेद मान रहे हैं जिसे उन्होंने उत्पाद्योपमा कहा है अर्थात् जो उपमा किसी शर्त से बनाई जाय, किन्तु मल्लिनाथ और सर्वस्वकार के अनुसार यहाँ कदली के साथ अधश्चरमूर्धत्व धर्म का असम्बन्ध होने पर भी यदि शब्द के बल से सम्बन्ध की संभावना बताने में असम्बन्धे-सम्बन्धातिशयोक्ति है / हमारे बिचार से कदली पर चेतनत्वारोप होने से समासोक्ति भी है। व्यतिरेक भी ध्वनित हो रहा है। 'दली' 'वती' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास. अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। ऊरुप्रकाण्डद्वितयेन तन्व्याः कर: पगजीयत वारणीयः / युक्तं ह्रिया कुण्डलनच्छलेन गोपायति स्वं मुखपुष्कर सः // 95 // अन्वयः-तन्व्याः ऊरु-प्रकाण्ड द्वितयेन वारणीयः करः पराजीयत ( अतएव ) स कुण्डलन-च्छलेच ह्रिया स्वम् मुख-पुष्करम् गोपायति / टीका-तन्व्याः कृशाङ्गयाः ऊर्वोः सक्थ्नोः प्रकाण्डयो: स्तम्भयोः द्वितयेन द्वयेन ( उभयत्र ष० तत्पु० ) वारणीयः वारण-सम्बन्धी हस्तिनः इत्यर्थः करः शुण्डादण्डः पराजीयत पराभूतः अतएव स हस्ती कुण्डलनस्य शुण्डस्य मण्डलाकारकरणस्य च्छलेन व्याजेन (10 तत्पु० ) ह्रिया लज्जया स्वम् स्वकीयम् मुखम् मुखभूतम् पुष्करम् कराग्रम् शुण्डाया अग्रभागमिति यावत् गोपायति निहनुवते न दर्शयतीति यावत् / दमयन्त्याः ऊर्वोः सकाशात् स्वकरे पराजयं लब्धे लज्जाभिभूतः करी स्वमुखं लोकेभ्यः निनुते इति भावः // 95 // व्याकरण-द्वितयेन द्वौ अवयवौं अत्रेति द्वि + तयप् / वारणीयः वारणस्यायमिति वारण +छ, छ को ईय। पराजीयत परा + जि + लङ् ( कर्मवाच्य ) कुण्डलनम् कुण्डलं ( मण्डलम् ) करोतीति कुण्डल + णिच् ( नामधा० ) ल्युट् ( भावे ) / ह्रिया ही + क्विप् ( भावे ) / गोपायति /गुप् + आय ( स्वार्थे + लट् / , अनुवाद-कृशाङ्गी ( दमयन्ती ) के दो ऊरु-स्तम्भों ने हाथी की शुंड को